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________________ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-३/११६ ६३ होती है । उनका आकर मंजूषा - पेटी जैसा होता है । गंगा जहाँ समुद्र में मिलती है, वहाँ उनका निवास है । [११७] उनके कपाट वैडूर्य मणिमय होते हैं । वे स्वर्ण - घटित होती हैं । विविध प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण होती हैं । उन पर चन्द्र, सूर्य तथा चक्र के आकार के चिह्न होते हैं । उनके द्वारों की रचना अनुसम-अविषम होती है । [११८] निधियों के नामों के सदृश नामयुक्त देवों की स्थिति एक पल्योपम होती हैं । उन देवों के आवास अक्रयणीय होते हैं उन पर आधिपत्य प्राप्त नहीं कर सकता । [११९] प्रचुर धन-रत्न-संचय युक्त ये नौ निधियां भरतक्षेत्र के छहों खण्डों को विजय करने वाले चक्रवर्ती राजाओं के वंशगत होती हैं । [१२०] राजा भरत तेले की तपस्या के परिपूर्ण हो जाने पर पौषधशाला से बाहर निकला, स्नानघर में प्रविष्ट हुआ । स्नान आदि सम्पन्न कर उसने श्रेमि-प्रश्रेणि-जनों को बुलाया, नौ निधियों को साध लेने के उपलक्ष्य में । अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया । उससे कहा- जाओ, गंगा महानदी के पूर्व में अवस्थित, भरतक्षेत्र के कोणस्थित दूसरे प्रदेश को, जो पश्चिम दिशा में गंगा से, पूर्व एवं दक्षिण दिशा में समुद्रों से और उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत से मर्यादित हैं तथा वहाँ के अवान्तरक्षेत्रीय समविषम कोणस्थ प्रदेशों को अधिकृत करो । शेष वर्णन पूर्ववत् । सेनापति सुषेण ने उन क्षेत्रों को अधिकृत कर राजा भरत को उससे अवगत कराया । राजा भरत ने उसे सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया । तत्पश्चात् वह दिव्य चक्ररत्न शास्त्रागार से बाहर निकला । यावत् वह एक सहस्र योद्धाओं से संपरिवृत था - घिरा था । दिव्य नैऋत्य कोण में विनीता राजधानी की ओर प्रयाण किया । राजा भरत ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहाआभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करो । मेरे आदेशानुरूप यह सब संपादित कर मुझे सूचित करो। [१२१] राजा भरत ने इस प्रकार राज्य अर्जित किया । शत्रुओं को जीता । उसके यहाँ समग्र रत्न उद्भूत हुए । नौ निधियाँ प्राप्त हुईं । खजाना समृद्ध था । बत्तीस हजार राजाओं से अनुगत था । साठ हजार वर्षों में समस्त भरतक्षेत्र को साध लिया । तदनन्तर राजा भरत ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा - 'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करो, चातुरंगिणी सेना सजाओ । राजा स्नान आदि कृत्यों से निवृत्त होकर अंजनगिरि शिखर के समान उन्नत गजराज पर आरूढ हुआ । स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि ये आठ मंगल राजा के आगे चले- उनके बाद जल से परिपूर्ण कलश, भृंगार, दिव्य छत्र, पताका, चंवर तथा दर्शन रचित - राजा को दिखाई देने वाली, आलोक दर्शनीय-हवा से फहराती, उच्छित, विजयध्वजा लिये राजपुरुष चले । तदनन्तर वैडूर्य की प्रभा से देदीप्यमान उज्ज्वल दंडयुक्त, लटकती हुई कोरंट पुष्पों की मालाओं से सुशोभित, चन्द्रमंडल के सदृश आभामय, समुच्छित - आतपत्र, सिंहासन, श्रेष्ठ मणि-रत्नों से विभूषित - पादुकाओं की जोड़ी रखी थी, वह पादपीठचौकी, जो किङ्करों, भृत्यों तथा पदातियों-क्रमशः आगे रवाना किये गये । तत्पश्चात् चक्ररन, छत्ररत्न, चर्मरत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, मणिरत्न, काकणीरत्न-ये सात एकेन्द्रिय रत्न यथाक्रम चले । उनके पीछे क्रमशः नौ निधियाँ चलीं । उनके बाद १६००० देव चले । उनके पीछे ३२००० राजा चले । उनके पीछे सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न तथा पुरोहितरत्न ने
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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