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________________ महाप्रत्याख्यान- ९७ १९१ मति हो; जैसे वह देश काल में पंड़ित हुई आत्मा देह त्याग करता है । [९८] जिनवर वचन से रहित और क्रिया के लिए आलसी किसी मुनि जब प्रमादी बन जाए तब इन्द्रिय समान चोर (उसके) तप संयम को नष्ट करते है । [१९] जिन वचन का अनुसरण करनेवाली मतिवाला पुरुष जिस समय संवर में लीन हो कर उस समय टोल के सहित अग्नि के समान मूल और डाली सहित कर्म को जला ने में समर्थ होते है । [१००] जैसे वायु सहित अग्नि हरे वनखंड के पेड़ को जला देती है, वैसे पुरुषाकार (उद्यम ) सहित मानव ज्ञान द्वारा कर्म का क्षय करते है । [१०१] अज्ञानी कई करोड़ साल में जो कर्मक्षय करते है वे कर्म को तीन गुप्ति में गुप्त ज्ञानी पुरुष एक श्वास में क्षय कर देता है । [१०२] वाकई में मरण नीकट आने के बावजूद बारह प्रकार का श्रुतस्कंध ( द्वादशांगी) सब तरह से दृढ एवं समर्थ ऐसे चित्तवाले मानव से भी चिन्तवन नहीं किया जा शकता है। [१०३] वीतराग के शासन में एक भी पद के लिए जो संवेग किया जाता है वो उसका ज्ञान है, जिससे वैराग्य पा शकते है । [१०४] वीतराग के शासन में एक भी पद के लिए जो संवेग किया जाता है, उससे वह मानव मोहजाल का अध्यात्मयोग द्वारा छेदन करते है । [ १०५ ] वीतराग के शासन में एक भी पद के लिए जो संवेग करता है, वह पुरुष हमेशा वैराग पाता है । इसलिए समाधि मरण से उसे मरना चाहिए । [१०६] जिससे वैराग हो वो, वह कार्य सर्व आदर के साथ करना चाहिए । जिससे संवेगी जीव संसार से मुक्त होता है और असंवेगी जीव को अनन्त संसार का परिभ्रमण करना पडता है । [१०७] जिनेश्वर भगवानने प्रकाशित किया यह धर्म मैं सम्यक् तरीके से त्रिविधे श्रद्धा करता हूँ । (क्योंकि) यह त्रस और स्थावर जीव के हित में है और मोक्ष रूपी नगर का सीधा रास्ता है। [१०८] मैं श्रमण हूँ, सर्व अर्थ का संयमी हूँ, जिनेश्वर भगवान ने जो जो निषेध किया है वो सर्व एवं [१०९] उपधि, शरीर और चतुर्विध आहार को मन, वचन और काया द्वारा मैं भाव से वोसिता (त्याग करता हूँ । [११०] मन द्वारा जो चिन्तवन के लायक नहीं है वह सर्व मैं त्रिविध से वोसिराता ( त्याग करता हूँ । [१११] असंयम से विरमना, उपधि का विवेक करण, (त्याग करना) उपशम, अयोग्य व्यापार से विरमना, क्षमा, निर्लोभता और विवेक [११२] इस पच्चक्खाण को बीमारी से पीड़ित मानव आपत्ति में भाव द्वारा अंगीकार करता हुआ और बोलते हुए समाधि पाता है । [११३] उस निमित्त के लिए यदि किसी मानव पञ्चकखाण करके काल करे तो यह एक पद द्वारा भी पच्चकखाण करवाना चाहिए ।
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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