________________
चन्द्रप्रज्ञप्ति-४/-/३९
२०५
को तीन गुना करके दश से भाग करना, वह भाग परिक्षेप विशेष का प्रमाण है । जो सर्वबाह्य बाहा है वह लवण समुद्र के अन्त में ९४८६८ योजन एवं एक योजन के चार दशांश भाग से परिक्षिप्त है । जंबूद्वीप के परिक्षेप को तीन गुना करके दश से छेद करके दश भाग घटाने से यह परिक्षेप विशेष कहा जाता है ।
हे भगवन् ! यह तापक्षेत्र आयाम से कितना है ? यह तापक्षेत्र आयाम से ७८३२३ योजन एवं एक योजन के एकतृतीयांश आयाम से कहा है । तब अंधकार संस्थिति कैसे कही है ? यह संस्थिति तापक्षेत्र के समान ही जानना । उसकी सर्वाभ्यन्तर बाहा मंदर पर्वत के निकट ६३२४ योजन एवं एक योजन के छ दशांश भाग प्रमाण परिक्षेप से जानना, यावत् सर्वबाह्य बाहा लवण समुद्र के अन्त में ६३२४५ योजन एवं एक योजन के छ दशांश भाग परिक्षेप से है । जो जंबूद्वीप का परिक्षेप है, उसको दुगुना करके दश से छेद करना फिर दश भाग कम करके यह परिक्षेप होता है । आयाम से ७८३२३ योजन एवं एक योजन का एक तृतीयांश भाग होता है तब परमप्रकर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त प्रमाण दिन और जघन्या बाहरमुहर्त की रात्रि होती है ।
जो अभ्यन्तर मंडल की अन्धकार संस्थिति का प्रमाण है, वही बाह्य मंडल की तापक्षेत्र संस्थिति का प्रमाण है और जो अभ्यन्तर मंडल की तापक्षेत्र संस्थिति का प्रमाण है वही बाह्यमंडल की अन्धकार संस्थिति का प्रमाण है यावत् परमप्रकर्ष प्राप्त उत्कृष्टा अट्ठारह मुहूर्त की रात्रि और जघन्य बारहमुहूर्त का दिन होता है । उस समय जंबूद्वीप में सूर्य १०० योजन उर्ध्व प्रकाशीत करता है, १८०० योजन नीचे की तरफ तथा ४७२६३ योजन एवं एक योजन के इक्किस षड्यंश तीर्छ भाग को प्रकाशीत करता है । प्राभृत-६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(प्राभृत-५) . [४०] सूर्य की लेश्या कहां प्रतिहत होती है ? इस विषय में बीस प्रतिपत्तियां है । -(१) मन्दर पर्वत में, (२) मेरु पर्वत में, (३) मनोरम पर्वत में, (४) सुदर्शन पर्वत में, (५) स्वंप्रभ पर्वत में, (६) गिरिराज पर्वत में, (७) रत्नोंच्चय पर्वत में, (८) शिलोच्चय पर्वत में, (९) लोकमध्य पर्वत में, (१०) लोकनाभी पर्वत में, (११) अच्छ पर्वत में, (१२) सूर्यावर्त पर्वत में, (१३) सूर्यावरण पर्वत में, (१४) उत्तम पर्वत में, (१५) दिगादि पर्वत में, (१६) अवतंस पर्वत में, (१७) धरणीखील पर्वत में, (१८) धरणीश्रृंग पर्वत में, (१९) पर्वतेन्द्र पर्वत में, (२०) पर्वतराज पर्वत में सूर्य लेश्या प्रतिहत होती है ।
भगवंत फरमाते है कि यह लेश्या मंदर पर्वत यावत् पर्वतराज पर्वत में प्रतिहत होती है । जो पुद्गल सूर्य की लेश्या को स्पर्श करते है, वहीं पुद्गल सूर्यलेश्या को प्रतिहत करते है । चरमलेश्या अन्तर्गत् पुद्गल भी सूर्य लेश्या को प्रतिहत करते है ।
( प्राभृत-६ [४१] सूर्य की प्रकाश संस्थिति किस प्रकार की है ? इस विषय में अन्य मतवादी पच्चीश प्रतिपत्तियां है, वह इस प्रकार है-(१) अनु समय में सूर्य का प्रकाश अन्यत्र उत्पन्न