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प्रज्ञापना - २८/१/५५४
कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आगत द्रव्यों का आहार करते हैं । विशेष यह कि इसमें बाहल्य कारण नहीं कहा जाता । वे वर्ण से कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत, गन्ध से-सुगन्ध और दुर्गन्ध वाले, रस से - तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस वाले और स्पर्श से - कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले तथा उनके पुराने वर्ण आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, इत्यादि कथन नारकों के समान यावत् कदाचित् उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं; तक जानना ।
भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों में से भविष्यकाल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? गौतम ! असंख्यातवें भाग का आहार और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सभी का आहार करते हैं या नहीं ? गौतम ! नैरयिकों के समान कहना । पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल, गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय की विषम मात्रा के रूप में बार-बार परिणत होते हैं । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों को जानना ।
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[५५५] भगवन् ! क्या द्वीन्द्रिय जीव आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! नारकों के समान समझना । विशेष यह कि उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है, उस की अभिलाषा असंख्यातसमय के अन्तर्मुहूर्त में विमात्रा से होती है । शेष कथन पृथ्वीकायिकों के समान "कदाचित् निःश्वास लेते हैं" तक कहना । विशेष यह कि वे नियम से छह दिशाओं से आहार लेते हैं । भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे भविष्य में उन पुद्गलों के कितने भाग का आहार और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? गौतम ! नैरयिकों के समान कहना । भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन सबका आहार करते हैं अथवा नहीं ? गौतम ! द्वीन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का है । —लोमाहार और प्रक्षेपाहार । वे जिन पुद्गलों को लोमाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन सबका समग्ररूप से आहार करते हैं और जिन पुद्गलों को प्रक्षेपाहाररूप में ग्रहण करते हैं, उनमें से असंख्यातवें भाग का ही आहार करते हैं उनके बहुत-से सहस्र भाग यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, न ही उनका स्पर्श होता है और न ही आस्वादन होता है । इन पूर्वोक्त प्रक्षेपाहारपुद्गलों में से आस्वादन न किये जानेवाले तथा स्पृष्ट न होनेवाले पुद्गलों में कौन किससे अल्प यावत् विशेपाधिक हैं ? गौतम ! सबसे कम आस्वादन न किये जानेवाले पुद्गल हैं, उनसे अनन्तगुणे स्पृष्ट न होनेवाले हैं । द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल किस-किस रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं ? जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं ।
इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय तक कहना । विशेष यह कि इनके द्वारा प्रक्षेपाहाररूप में गृहीत पुद्गलों के अनेक सहस्र भाग अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान तथा अनास्वाद्यमान ही विध्वंस को प्राप्त होते । इन अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान और अनास्वाद्यमान पुद्गलों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! अनाघ्रायमाण पुद्गल सबसे कम हैं, उससे अनन्तगुणे पुद्गल अनास्वाद्यमान हैं और अस्पृश्यमान पुद्गल उससे अनन्तगुणे हैं ।