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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद का आहार करते हैं या अस्पृष्ट पुद्गलों का ? गौतम ! वे स्पृष्ट पुद्गलों का ही आहार करतेहैं । भाषा उद्देशक के समान वे यावत् नियम से छहों दिशाओं में से आहार करते हैं । बहुल कारण की अपेक्षा से जो वर्ण से काले-नीले, गन्ध से दुर्गन्धवाले, रस से तिक्त और कटुक रसवाले और स्पर्श से कर्कश, गुरु, शीत और रूक्ष स्पर्श हैं, उनके पुराने वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण का विपरिणमन कर, परिपीडन परिशाटन और परिविध्वस्त करके अन्य अपूर्व वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण को उत्पन्न करके अपने शरीरक्षेत्र में अवगाहना किये हुए पुद्गलों का पूर्णरूपेण आहार करते हैं । भगवन् ! क्या नैरयिक सर्वतः आहार करते हैं ? पूर्णरूप से परिणत करते हैं ? सर्वतः उच्छ्वास तथा सर्वतः निःश्वास लेते हैं ? बारबार आहार करते हैं ? बार-बार परिणत करते हैं ? बार-बार उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं ? अथवा कभी-कभी आहार करते हैं ? यावत् उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं ? हाँ, गौतम ! नैरयिक सर्वतः आहार करते हैं, इसी प्रकार वही पूर्वोक्तवत् यावत् कभी-कभी निःश्वास लेते हैं । नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों का आगामी का में असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं । भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सबका आहार कर लेते हैं अथवा सबका नहीं करते ? गौतम ! शेष बचाये बिना उन सबका आहार कर लेते हैं । भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे उन पुद्गलों को बारबार किस रूप में परिणत करते हैं ? गौतम ! उन पुद्गलों को श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय रूप में, अनिष्टरूप से, अकान्तरूप से, अप्रियरूप से, अशुभरूप से, अमनोज्ञरूप से, अमनामरूप से, अनिश्चितता से, अनभिलषितरूप से, भारीरूप से, हल्केरूप से नहीं, दुःखरूप से सुखरूप से नहीं, उन सबका बारबार परिणमन करते हैं । १२० [५५३] भगवन् ! क्या असुरकुमार आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । नारकों की वक्तव्यता समान असुरकुमारों के विषय में यावत्... ' उनके पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है' यहाँ तक कहना । उनमें जो आभोगनिवर्तित आहार है उस आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थ भक्त पश्चात् एवं उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्रवर्ष में उत्पन्न होती है । बाहल्यरूप कारण से वे वर्ण से -पीत और श्वेत, गन्ध से-सुरभिगन्ध वाले, रस से - अम्ल और मधुर तथा स्पर्श से - मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण पुद्गलों का आहार करते हैं । उन के पुराने वर्ण- गन्धरस- स्पर्श - गुण को विनष्ट करके, अपूर्व यावत्-वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को उत्पन्न करके मनोज्ञ, मनाम इच्छित अभिलाषित रूप में परिणत होते हैं । भारीरूप में नहीं हल्के रूप में, सुखरूप में परिणत होते हैं, दुःखरूप में नहीं । वे आहार्य पुद्गल उनके लिए पुनः पुनः परिणत होते हैं । शेप कथन नारकों के समान जानना । इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक जानना । विशेष यह कि इनका आभोगनिर्वर्तित आहार उत्कृष्ट दिवस - पृथक्त्व से होता है । [५५४] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! प्रतिसमय बिना विरह के होती है । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव किस वस्तु का आहार करते हैं ? गौतम ! नैरयिकों के कथन के समान जानना; यावत् पृथ्वीकायिक जीव कितनी दिशाओं से आहार करते हैं ? गौतम ! यदि व्याघात न हो तो छहों दिशाओं से, यदि व्याघात हो तो
SR No.009786
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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