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जीवाजीवाभिगम-३ / द्वीप./१६४
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भगवन् ! क्या वैसी गंध उन तृणों और मणियों की है ? गौतम ! यह बात यथार्थ नहीं है। इससे भी इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनामतर गंध उन तृणों और मणियों की कही गई है । हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों का स्पर्श कैसा है ? जैसे-आजिनक, रुई, बूर वनस्पति, मक्खन, हंसगर्भतूलिका, सिरीष फूलों का समूह, नवजात कुमुद के पत्रों की राशि के कोमल स्पर्श समान स्पर्श है क्या ? गौतम ! यह अर्थ यथार्थ नहीं है । उन तृणों और मणियों का स्पर्श उनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम है ।
हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों के पूर्व-पश्चिम-दक्षिण - उत्तरदिशा से आगत वायु द्वारा मंद-मंद कम्पित होने से, विशेषरूप से कम्पित होने से, बार-बार कंपित होने से, क्षोभित, चालित और स्पंदित होने से तथा प्रेरित किये जाने पर कैसा शब्द होता है ? जैसे शिबिका, स्यन्दमानिका, और संग्राम रथ जो छत्र सहित है, ध्वजा सहित है, दोनों तरफ लटकते हुए बड़ेबड़े घंटों से युक्त है, जो श्रेष्ठ तोरण से युक्त है, नन्दिघोष से युक्त है, जो छोटी-छोटी घंटियों से युक्त, स्वर्ण की माला-समूहों से सब ओर से व्याप्त है, जो हिमवन् पर्वत के चित्र-विचित्र मनोहर चित्रों से युक्त तिनिश की लकड़ी से बना हुआ, सोने से खचित है, जिसके आरे बहुत ही अच्छी तरह लगे हुए हों तथा जिसकी धुरा मजबूत हो, जिसके पहियों पर लोह की पट्टी चढ़ाई गई हो, आकीर्ण - गुणों से युक्त श्रेष्ठ घोड़े जिसमें जुते हुए हों, कुशल एवं दक्ष सारथी से युक्त हो, प्रत्येक में सौ-सौ बाण वाले बत्तीस तूणीर जिसमें सब ओर लगे हुए हों, कवच जिसका मुकुट हो, धनुष सहित बाण और भाले आदि विविध शस्त्रों तथा उनके आवरणों से जो परिपूर्ण हो तथा योद्धाओं के युद्ध निमित्त जो सजाया गया हो, जब राजांगण में आया अन्तःपुर में या मणियों से जड़े हुए भूमितल में बार-बार वेग में चलता हो, आता-जाता हो, तब जो उदार, मनोज्ञ और कान एवं मन को तृप्त करने वाले चौतरफा शब्द निकलते हैं, क्या उन तृणों और मणियों का ऐसा शब्द होता है ? हे गौतम ! यह अर्थ यथार्थ नहीं है ।
भगवन् ! जैसे ताल के अभाव में भी बजायी जानेवाली वैतालिका वीणा जब उत्तरामंदा नामक मूर्छना से युक्त होती है, बजानेवाले व्यक्ति की गोद में भलीभांति विधिपूर्वक रखी हुई होती है, चन्दन के सार से निर्मित कोण से घर्षित की जाती है, बजाने में कुशल नर-नारी द्वारा संप्रग्रहीत हो प्रातः काल और सध्याकाल के समय मन्द मन्द और विशेषरूप से कम्पित करने पर, बजाने पर, क्षोभित, चालित और स्पंदित, घर्षित और उदीरित करने पर जैसा उदार, मनोज्ञ, कान और मन को तृप्ति करने वाला शब्द चौतरफा निकलता है, क्या ऐसा उन तृणों और मणियों का शब्द है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ।
भगवन् ! जैसे किंनर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व - जो भद्रशालवन, नन्दनवन, सोमनसवन और पंडकवन में स्थित हों, जो हिमवान् पर्वत, मलयपर्वत या मेरुपर्वत की गुफा में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक दूसरे के सन्मुख बैठे हों, परस्पर रगड़ से रहित सुखपूर्वक आसीन हों, समस्थान पर स्थित हों, जो प्रमुदित और क्रीडा में मग्न हों, गीत में जिनकी रति हो और गन्धर्व नाट्य आदि करने से जिनका मन हर्षित हो रहा हो, उन गन्धर्वादि के गद्य, पद्य, कथ्य, पदबद्ध, पादबद्ध, उत्क्षिप्त, प्रवर्तक, मंदाक, इन आठ प्रकार के गेय को, रुचिकर अन्त वाले गेय को, सात स्वरों से युक्त गेय को, आठ रसों से युक्त गेय को, छह दोषों से रहित, ग्यारह अलंकारों से युक्त, आठ गुणों से युक्त बांसुरी की सुरीली आवाज से गाये
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