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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
जो वचन द्रव्यो से, पर्यायों से तथा गुणों से युक्त हों तथा कर्मों से, क्रियाओं से, शिल्पों से और सिद्धान्तसम्मत अर्थों से युक्त हों और जो संज्ञापद, आख्यात, क्रियापद, निपात, अव्यय, उपसर्ग, तद्धितपद, समास, सन्धि, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रियाविधान, पद, धातु, स्वर, विभक्ति, वर्ण, इन से युक्त हो (ऐसा वचन बोलना चाहिए ।) त्रिकालविषयक सत्य दस प्रकार का होता है । जैसा मुख से कहा जाता है, उसी प्रकार कर्म से अर्थात् लेखन क्रिया से तथा हाथ, पैर, आँख आदि की चेष्टा से, मुँह बनाना आदि आकृति से अथवा जैसा कहा जाए वैसी ही क्रिया करके बतलाने से सत्य होता है । बारह प्रकार की भाषा होती है। वचन सोलह प्रकार का होता है । इस प्रकार अरिहन्त भगवान् द्वारा अनुज्ञात तथा सम्यक् प्रकार से विचारित सत्यवचन यथावसर पर ही साधु को बोलना चाहिए ।
[३७] अलीक-असत्य, पिशुन-चुगली, परुष-कठोर, कटु-कटुक और चपलचंचलतायुक्त वचनों से बचाव के लिए तीर्थंकर भगवान् ने यह प्रवचन समीचीन रूप से प्रतिपादित किया है । यह भगवत्प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, जन्मान्तर में शुभ भावना से युक्त है, भविष्य में श्रेयस्कर है, शुद्ध है, न्यायसंगत है, मुक्ति का सीधा मार्ग है, सर्वोत्कृष्ट है तथा समस्त दुःखों और पापों को पूरी तरह उपशान्त है ।
सत्यमहाव्रत की ये पाँच भावनाएँ हैं, जो असत्य वचन के विरमण की रक्षा के लिए हैं, इन पाँच भावनाओं में प्रथम अनुवीचिभाषण है । सद्गुरु के निकट सत्यव्रत को सुन कर एवं उसके शुद्ध परमार्थ जानकर जल्दी-जल्दी नहीं बोलना चाहिए, कठोर वचन, चपलता वचन, सहसा वचन, पर पीड़ा एवं सावध वचन नहीं बोलना चाहिए । किन्तु सत्य, हितकारी, परिमित, ग्राहक, शुद्ध-निर्दोष, संगत एवं पूर्वापर-अविरोधी, स्पष्ट तथा पहले बुद्धि द्वारा सम्यक् प्रकार से विचारित ही साधु को अवसर के अनुसार बोलना चाहिए । इस प्रकार निरखद्य वचन बोलने की यतना के योग से भावित अन्तरात्मा हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख पर संयम रखने वाला, शूर तथा सत्य और आर्जव धर्म सम्पन्न होता है ।
दूसरी भावना क्रोधनिग्रह है । क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए । क्रोधी मनुष्य रौद्रभाववाला हो जाता है और असत्य भाषण कर सकता है । मिथ्या, पिशुन और कठोर तीनों प्रकार के वचन बोलता है । कलह-वैर-विकथा ये तीनों करता है । वह सत्य, शील तथा विनय-इन तीनों का घात करता है । असत्यवादी लोक में द्वेष, दोष और अनादर-इन तीनों का पात्र बनता है । क्रोधाग्नि से प्रज्वलितहृदय मनुष्य ऐसे और इसी प्रकार के अन्य सावध वचन बोलता है । अतएव क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए । इस प्रकार क्षमा से भावित अन्तःकरण वाला हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख के संयम से युक्त, शूर साधु सत्य और आर्जव से सम्पन्न होता है ।
तीसरी भावना लोभनिग्रह है । लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए । लोभी मनुष्य लोलुप होकर क्षेत्र-खेत-खुली भूमि और वास्तु-मकान आदि के लिए असत्य भाषण करता है । कीर्ति और लोभ-वैभव और सुख के लिए, भोजन के लिए, पानी के लिए, पीठ-पीढ़ा
और फलक के लिए, शय्या और संस्तारक के लिए, वस्त्र और पात्र के लिए, कम्बल और पादपोंछन के लिए, शिष्य और शिष्या के लिए, तथा इस प्रकार के सैकड़ों कारणों से असत्य भाषण करता है । लोभी व्यक्ति मिथ्या भाषण करता है, अतएव लोभ का सेवन नहीं करना