________________
प्रश्नव्याकरण-२/७/३७
चाहिए । इस प्रकार मुक्ति से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत, शूर और सत्य तथा आर्जव धर्म से सम्पन्न होता है ।।
चौथी भावना निर्भयता है । भयभीत नहीं होना चाहिए । भीरु मनुष्य को अनेक भय शीघ्र ही जकड़ लेते हैं । भीरु मनुष्य असहाय रहता है । भूत-प्रेतों द्वारा आक्रान्त कर लिया जाता है । दूसरों को भी डरा देता है । निश्चय ही तप और संयम को भी छोड़ बैठता है। स्वीकृत कार्यभार का भलीभांति निर्वाह नहीं कर सकता है । सत्पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग का अनुसरण करने में समर्थ नहीं होता । अतएव भय से, व्याधि-कुष्ठ आदि से, ज्वर आदि रोगों से, वृद्धावस्था से, मृत्यु से या इसी प्रकार के अन्य इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि के भय से डरना नहीं चाहिए । इस प्रकार विचार करके धैर्य की स्थिरता अथवा निर्भयता से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत, शूर एवं सत्य तथा आर्जवधर्म से सम्पन्न होता है ।
___ पाँचवीं भावना परिहासपरिवर्जन है । हास्य का सेवन नहीं करना चाहिए । हँसोड़ व्यक्ति अलीक और असत् को प्रकाशित करनेवाले या अशोभनीय और अशान्तिजनक वचनों का प्रयोग करते हैं । परिहास दूसरों के तिरस्कार का कारण होता है । हँसी में परकीय निन्दातिरस्कार ही प्रिय लगता है । हास्य परपीडाकारक होता है । चारित्र का विनाशक, शरीर की आकृति को विकृत करने वाला और मोक्षमार्ग का भेदन करनेवाला है । हास्य अन्योन्य होता है, फिर परस्पर में परदारगमन आदि कुचेष्टा का कारण होता है । एक दूसरे के मर्म को प्रकाशित करनेवाला बन जाता है । हास्य कन्दर्प-आज्ञाकारी सेवक जैसे देवों में जन्म का कारण होता है । असुरता एवं किल्बिषता उत्पन्न करता है । इस कारण हँसी का सेवन नहीं करना चाहिए । इस प्रकार मौन से भावित अन्तःकरण वाला साधु हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख से संयत होकर शूर तथा सत्य और आर्जव से सम्पन्न होता है ।
_इस प्रकार मन, वचन और काय से पूर्ण रूप से सुरक्षित इन पांच भावनाओं से संवर का यह द्वार आचरित और सुप्रणिहित हो जाता है । अतएव धैर्यवान् तथा मतिमान् साधक को चाहिए कि वह आस्रव का निरोध करनेवाले, निर्मल, निश्छिद्र, कर्मबन्ध के प्रवाह से रहित, संक्लेश का अभाव करनेवाले एवं समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात इस योग को निरन्तर जीवनपर्यन्त आचरण में उतारे । इस प्रकार (पूर्वोक्त रीति से) सत्य नामक संवरद्वार यथासमय अंगीकृत, पालित, शोधित, तीरित, कीर्तित, अनुपालित और आराधित होता है । इस प्रकार ज्ञातमुनि महावीर स्वामी ने इस सिद्धवरशासन का कथन किया है, विशेष प्रकार से विवेचन किया है । यह तर्क और प्रमाण से सिद्ध है, सुप्रतिष्ठित किया गया है, भव्य जीवों के लिए इसका उपदेश किया गया है, यह प्रशस्त-कल्याणकारी-मंगलमय है । अध्ययन-७ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-८ संवरद्वार-३) [३८] हे जम्बू ! तीसरा संवरद्वार 'दत्तानुज्ञात' नामक है । यह महान् व्रत है तथा यह गुणव्रत भी है । यह परकीय द्रव्य-पदार्थों के हरण से निवृत्तिरूप क्रिया से युक्त है, व्रत अपरिमित और अनन्त तृष्णा से अनुगत महा-अभिलाषा से युक्त मन एवं वचन द्वारा पापमय