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________________ प्रश्नव्याकरण- २/६/३५ ९५ आचरण) से साधु ईर्यासमिति में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से भावित होता है । तथा शबलता से रहित, संक्लेश से रहित, अक्षत चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है । दूसरी भावना मनःसमिति है । पापमय, अधार्मिक, दारुण, नृशंस, वध, बन्ध और परिक्लेश की बहुलता वाले, भय, मृत्यु एवं क्लेश से संक्लिष्ट ऐसे पापयुक्त मन से लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिए । इस प्रकार (के आचरण) से - मनः समिति की प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित होती है तथा निर्मल, संक्लेशरहित, अखण्ड निरतिचार चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है । अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना वचनसमिति है । पापमय वाणी से तनिक भी पापयुक्त वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए । इस प्रकार की वाक्समिति के योग से युक्त अन्तरात्मा वाला निर्मल, संक्लेशरहित और अखण्ड चारित्र की भावना वाला अहिंसक साधु साधु होता है । आहार की एषणा से शुद्ध, मधुकरी वृत्ति से, भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए । भिक्षा लेनेवाला साधु अज्ञात रहे, अगृद्ध, अदुष्ट, अकरुण, अविषाद, सम्यक् प्रवृत्ति में निरत रहे । प्राप्त संयमयोगों की रक्षा के लिए यतनाशील एवं अप्राप्त संयमयोगों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नवान्, विनय का आचरण करनेवाला तथा क्षमा आदि गुणों की प्रवृत्ति से युक्त ऐसा भिक्षाचर्या में तत्पर भिक्षु अनेक घरों में भ्रमण करके थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करे । भिक्षा ग्रहण करके अपने स्थान पर गुरुजन के समक्ष जाने-आने में लगे हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण करे । गृहीत आहार- पानी की आलोचना करे, आहार- पानी उन्हें दिखला दे, फिर गुरुजन के द्वारा निर्दिष्ट किसी अग्रगण्य साधु के आदेश के अनुसार, सब अतिचारों से रहित एवं अप्रमत्त होकर विधिपूर्वक अनेषणाजनित दोषों की निवृत्ति के लिए पुनः प्रतिक्रमण करे । तत्पश्चात् शान्त भाव से सुखपूर्वक आसीन होकर, मुहूर्त भर धर्मध्यान, गुरु की सेवा आदि शुभ योग, तत्त्वचिन्तन अथवा स्वाध्याय के द्वारा अपने मन का गोपन करके - चित्त स्थिर करके श्रुतचारित्ररूप धर्म में संलग्न मनवाला होकर, चित्तशून्यता से रहित होकर, संक्लेश से मुक्त रह कर, कलह से रहित होकर, समाधियुक्त मन वाला, श्रद्धा, संवेग और कर्मनिर्जरा में चित्त को संलग्न करने वाला, प्रवचन में वत्सलतामय मन वाला होकर साधु अपने आसन से उठे और हृष्टतुष्ट होकर यथारानिक अन्य साधुओं को आहार के लिए निमंत्रित करे । गुरुजनों द्वारा लाये हुए आहार को वितरण कर देने के बाद उचित आसन पर बैठे । फिर मस्तक सहित शरीर को तथा हथेली को भलीभाँति प्रमार्जित करके आहार में अनासक्त होकर, स्वादिष्ट भोजन की लालसा से रहित होकर तथा रसों में अनुरागरहित होकर, दाता या भोजन की निन्दा नहीं करता हुआ, सरस वस्तुओं में आसक्ति न रखता हुआ, अकलुषित भावपूर्वक, लोलुपता से रहित होकर, परमार्थ बुद्धि का धारक साधु 'सुर-सुर' ध्वनि न करता हुआ, 'चप-चप' आवाज न करता हुआ, न बहुत जल्दी-जल्दी और न बहुत देर से, भोजन को भूमि पर न गिराता हुआ, चौड़े प्रकाशयुक्त पात्र में (भोजन करे ।) यतनापूर्वक, आदरपूर्वक एवं संयोजनादि सम्बन्धी दोषों से रहित, अंगार तथा धूम दोष से रहित, गाड़ी की धुरी में तेल देने अथवा घाव पर मल्हम लगाने के समान, केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए एवं संयम
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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