________________
२४८
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
भूतमह, स्तूपमह, चैत्यमह, वृक्षमह, गिरिमह, दरि मह, कूपमह, नदीमह, सरमह, अथवा सागरमह है ? कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय, उग्रवंशीयकुमार, भोगवंशीय, राजन्यवंशीय, इब्भ, इब्भपुत्र तथा दूसरे भी अनेक राजा ईश्वर तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक इभ्यश्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि सभी स्नान कर, बलिकर्म कर, कौतुक-मंगल-प्रायश्चित कर, मस्तक और गले में मालाएँ धारण कर, मणिजटित स्वर्ण के आभूषणों से शरीर को विभूषित कर, गले में हार, अर्धहार, तिलड़ी, झूमका, और कमर में लटकते हुए कटिसूत्र पहनकर, शरीर पर चंदन का लेप कर, आनंदातिरेक से सिंहनाद और कलकल ध्वनि से श्रावस्ती नगरी को गुंजाते हुए जनसमूह के साथ एक ही दिशा में मुख करके जा रहे हैं आदि । यावत् उनमें से कितने ही घोड़ों पर सवार होकर, कई हाथी पर सवार होकर, रथों में बैठकर, या पालखी या स्यंदमानिका में बैठकर
और कितने ही अपने अपने समुदाय बनाकर पैदल ही जा रहे हैं । ऐसा विचार किया और विचार करके कंचुकी पुरुष को बुलाकर उससे पूछा-देवानुप्रिय ! आज क्या श्रावस्ती नगरी में इन्द्र-महोत्सव है यावत् सागरयात्रा है कि जिससे ये बहुत से उग्रवंशीय आदि सभी लोग अपनेअपने घरों से निकलकर एक ही दिशा में जा रहे हैं ?
तब उस कंचुकी पुरुष ने केशी कमारश्रमण के पदार्पण होने के निश्चित समाचार जान कर दोनों हाथ जोड़ यावत् जय-विजय शब्दों से वधाकर चित्तसारथी से निवेदन कियादेवानुप्रिय ! आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्र-महोत्सव यावत् समुद्रयात्रा आदि नहीं है । परन्तु हे देवानुप्रिय ! आज जाति आदि से संपन्न पावपित्य केशी नामक कुमारश्रमण यावत् एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहाँ पधारे हैं यावत् कोष्ठक चैत्य में विराजमान हैं । इसी कारण आज श्रावस्ती नगरी के ये अनेक उग्रवंशीय यावत् इब्भ, इब्भपुत्र आदि वंदना आदि करने के विचार से बड़े-बड़े समुदायों में अपने घरों से निकल रहे हैं । तत्पश्चात् कंचुकी पुरुष से यह बात सुन-समझ कर चित्त सारथी ने हृदय-तुष्ट यावत् हर्षविभोर होते हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । उनसे कहा शीघ्र ही चार घंटोंवाले अश्वरथ को जोतकर उपस्थित करो। यावत् वे कौटुम्बिक पुरुष छत्रसहित अश्वरथ को जोतकर लाये ।
तदनन्तर चित्त सारथी ने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक मंगल प्रायश्चित्त किया, शुद्ध एवं सभाउचित मांगलिक वस्त्रों को पहना, अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया और वह चार घण्टों वाले अश्वरथ के पास आया । उस चातुर्घट अश्वरथ पर आरूढ हुआ एवं कोरंट पुष्पों की मालाओं से सुशोभित छत्र धारण करके सुभटों के विशाल समुदाय के साथ श्रावस्ती नगरी के बीचों-बीच होकर निकला । जहाँ कोष्ठक नामक चैत्य था और जहाँ केशी कुमारश्रमण बिराज रहे थे, वहाँ आया । केशी कुमारश्रमण से कुछ दूर घोड़ों को रोका और रथ खड़ा किया । नीचे उतरा । जहाँ केशी कुमारश्रमण थे, वहाँ आया । आकर दक्षिण दिशा से प्रारंभ कर केशीकुमार श्रमण की तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदन-नमस्कार किया । समुचित स्थान पर सम्मुख बैठकर धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से नमस्कार करता हुआ विनयपूर्वक अंजलि करके पर्युपासना करने लगा ।
तत्पश्चात् केशी कुमारश्रमण ने चित्त सारथी और उस अतिविशाल परिषद् को चार याम धर्म का उपदेश दिया । समस्त प्राणातिपात से विरमण, समस्त मृषावाद से विरत होना, समस्त अदत्तादान से विरत होना, समस्त बहिद्धादान से विरत होना । इसके बाद वह अतिविशाल परिषद् केशी कुमारश्रमण से धर्मदेशना सुनकर एवं हृदय में धारण कर जिस दिशा से आई थी, उसी ओर लौट गई ।