________________
राजप्रश्नीय ५२
श्रावस्ती नगरी के मध्यभाग में प्रविष्ट कर जितशत्रु राजा की बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ आकर घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया और रथ से नीचे उतरा । तदनन्तर उस महार्थक यावत् भेंट लेकर आभ्यन्तर उपस्थानशाला में जहाँ जितशत्रु राजा बैठा था, वहाँ आया । वहाँ दोनों हाथ जोड़ यावत् जय-विजय शब्दों से जितशत्रु राजा का अभिनन्दन किया और फिर उस महार्थक यावत् उपहार को भेंट किया । तब जितशत्रु राजा ने चित्त सारथी द्वारा भेंट किये ये इस महार्थक यावत् उपहार को स्वीकार किया एवं चित्त सारथी का सत्कार-सम्मान किया और विदा करके विश्राम करने के लिए राजमार्ग पर आवास स्थान दिया ।
२४७
तत्पश्चात् चित्त सारथी विदाई लेकर जितशत्रु राजा के पास से निकला और जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, चार घंटोंवाला अश्वरथ खड़ा था, वहाँ आया । उस पर सवार हुआ । फिर श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच से होता हुआ राजमार्ग पर अपने ठहरने के लिये निश्चित गये आवास-स्थान पर आया । वहाँ घोड़ों को रोका, रथ से नीचे उतरा । इसके पश्चात् उसने स्नान किया, बलिकर्म किया और कौतुक, मंगल प्रायश्चित्त करके शुद्ध और उचित मांगलिक वस्त्र पहने एवं अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया । भोजन आदि करके तीसरे प्रहर गंधर्वों, नर्तकों और नाट्यकारों के संगीत, नृत्य और नाट्याभिनयों को सुनतेदेखते हुए तथा इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप एवं गंधमूलक पांच प्रकार के मनुष्य संबंधी कामभोगों को भोगते हुए विचरने लगा ।
[५३] उस काल और उस समय में जातिसंपन्न, कुलसंपन्न, आत्मबल से युक्त, अधिक रूपवान्, विनयवान्, सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चरित्र के धारक, लज्जावान्, लाघववान्, लज्जालाघवसंपन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, क्रोध, मान, माया, और लोभ को जीतनेवाले, जीवित रहने की आकांक्षा एवं मृत्यु के भय से विमुक्त, तपः प्रधान, गुणप्रधान, करणप्रधान, चरणप्रधान, निग्रह-प्रधान, निश्चय प्रधान, आर्जवप्रधान, मार्दवप्रधान, लाघवप्रधान, क्षमाप्रधान, गुप्तिप्रधान, मुक्तिप्रधान, विद्याप्रधान, मंत्रप्रधान, कुशल अनुष्ठानों में प्रधान, वेदप्रधान, नयप्रधान, नियमप्रधान, सत्यप्रधान, शौचप्रधान, ज्ञानप्रधान, दर्शनप्रधान, चारित्रप्रधान, उदार, घोर परीषहों, इन्द्रियों और कषायों का निग्रह में कठोर, घोखती, घोरतपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी, शरीरसंस्कार के त्यागी, विपुल तेजोलेश्या को अपने शरीर में ही समाये रखने वाले, चौदह पूर्वों के ज्ञाता, मतिज्ञानादि चार ज्ञानों के धनी पार्श्वपत्य केशी नामक कुमारश्रमण पाँच सौ अनगारों से परिवृत्त होकर अनुक्रम से चलते हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, सुखेसुखे विहार करते हुए जहाँ श्रावस्ती नगरी थी, जहाँ कोष्ठक चैत्य था, वहाँ पधारे एवं श्रावस्ती के बाहर कोष्ठक चैत्य में यथोचित अवग्रह को ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।
[५४] तत्पश्चात् श्रावस्ती नगरी के श्रृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में लोग आपस में चर्चा करने लगे, लोगों के झुंड इकट्ठे होने लगे, लोगों बोलने की घोंघाट सुनाई पड़ने लगी, जनकोलाहल होने लगा, भीड़ के कारण लोग आपस में टकराने लगे, एक के बाद एक लोगों के टोले आते दिखाई देने लगे, इधर-उधर से आकर लोग एक स्थान पर इकट्ठे होने लगे, यावत् पर्युपासना करने लगे ।
तब लोगों की बातचीत, जनकोलाहल सुनकर तथा जनसमूह को देखकर चित्त सारथी को इस प्रकार का यह आन्तरिक यावत् उत्पन्न हुआ कि क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्रमह है ? अथवा स्कन्दमह है ? या रुद्रमह, मुकुन्दमह, शिवमह, वैश्रमण मह, नागमह, यक्षमह,