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राजप्रश्नीय-१५
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मनोहर आदि मनोज्ञ श्वेत वर्ण वाली थीं । उस दिव्य यान विमान के अन्तर्वर्ती सम भूभाग में खचित मणियां क्या वैसी ही सुरभिगंध वाली थीं जैसी कोष्ठ तगर, इलाइची, चोया, चंपा, दमनक, कुंकुम, चंदन, उशीर, मरुआ, जाई पुष्प, जुही, मल्लिका, स्नान-मल्लिका, केतकी, पाटल, नवमल्लिका, अगर, लवंग, वास, कपूर और कपूर के पुड़ों को अनुकूल वायु में खोलने पर, कूटने पर, तोड़ने पर, उत्कीर्ण करने पर, बिखेरने पर, उपभोग करने पर, दूसरों को देने पर, एक पात्र से दूसरे पात्र में रखने पर, उदार, आकर्षक, मनोज्ञ, मनहर घ्राण और मन को शांतिदायक गंध सभी दिशाओं में मघमघाती हुई फैलती है, महकती है ? आयुष्मन् श्रमणो! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । ये तो मात्र उपमायें हैं । वे मणियां तो इनसे भी अधिक इष्टतर यावत् मनोज्ञ-सुरभि गंध वाली थी । उन मणियों का स्पर्श क्या अजिनक रुई, बूर, मक्खन, हंसगर्भ, शिरीष पुष्पों के समूह अथवा नवजात कमलपत्रों की राशि जैसा कोमल था ?
आयुष्मन् श्रमणो ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । वे मणियां तो इनसे भी अधिक इष्टतर यावत् स्पर्शवाली थीं।
तदनन्तर आभियोगिक देवों ने उस दिव्य यान विमान के अंदर बीचों-बीच एक विशाल प्रेक्षागृह मंडप की रचना की । वह प्रेक्षागृह मंडप अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट था । अभ्यत्रत एवं सरचित वेदिकाओं. तोरणों तथा सन्दर पुतलियों से सजाया गया था । सुन्दर विशिष्ट रमणीय संस्थान प्रशस्त और विमल वैडूर्य मणियों से निर्मित स्तम्भों से उपशोभित था । उसका भूमिभाग विविध प्रकार की उज्ज्वल मणियों से खचित, सुविभक्त एवं अत्यन्त सम था । उसमें ईहामृग वृषभ, तुरंग, नर, मगर, विहग, सर्प, किंनर, रुरु, सरभ, चमरी गाय, कुंजर, वनलता पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित थे । स्तम्भों के शिरोभाग में वज्र रत्नों से बनी हुई वेदिकाओं से मनोहर दिखता था । यंत्रचालित-जैसे विद्याधर युगलों से शोभित था। सूर्य के सदृश हजारों किरणों से सुशोभित एवं हजारों सुन्दर घंटाओं से युक्त था । देदीप्यमान
और अतीव देदीप्यमान होने से दर्शकों के नेत्रों को आकृष्ट करने वाला, सुखप्रद स्पर्श और रूप-शोभा से सम्पन्न था । उस पर स्वर्ण, मणि एवं रत्नमय स्तूप बने हुए थे । उसके शिखर का अग्र भाग नाना प्रकार की घंटियों और पंचरंगी पताकाओं से परिमंडित था । और अपनी चमचमाहट एवं सभी ओर फैल रही किरणों के कारण चंचल-सा दिखता था ।
उसका प्रांगण गोबर से लिपा था और दीवारें सफेद मिट्टी से पुती थीं । स्थान-स्थान पर सरस गोशीर्ष रक्तचंदन के हाथे लगे हुए थे और चंदनचर्चित कलश रखे थे । प्रत्येक द्वार तोरणों और चन्दन-कलशों से शोभित थे । दीवालों पर ऊपर से लेकर नीचे तक सुगंधित गोल मालायें लटक रही थीं । सरस सुगन्धित पंचरंगे पुष्पों के मांडने बने हुए थे । उत्तम कृष्ण अगर, कुन्दरूष्क, तुरुष्क और धूप की मोहक सुगंध से महक रहा था और उस उत्तम सुरभि गंध से गंध की वर्तिका प्रतीत होता था । अप्सराओं के समुदायों के गमनागमन से व्याप्त था । दिव्य वाद्यों के निनाद से गूंज रहा था । वह स्वच्छ यावत् प्रतिरूप था । उस प्रेक्षागृह मंडप के अंदर अतीव सम रमणीय भू-भाग की रचना की । उस भूमि-भाग में खचित मणियों के रूप-रंग, गंध आदि की समस्त वक्तव्यता पूर्ववत् । उस सम और रमणीय प्रेक्षागृह मंडप की छत में पद्मलता आदि के चित्रामों से युक्त यावत् अतीव मनोहर चंदेवा बांधा । उस सम रमणीय भूमिभाग के भी मध्यभाग में वज्ररत्नों से निर्मित एक विशाल अक्षपाट की रचना की। उस क्रीडामंच के बीचोंबीच आठ योजन लंबी-चौड़ी और चार योजन मोटी पूर्णतया वज्ररत्नों से बनी हुई निर्मल, चिकनी यावत् प्रतिरूपा एक विशाल मणिपीठिका की विकुर्वणा की ।