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औपपातिक-५०
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सुकोमल होंगे । उसके शरीर की पाँचों इन्द्रियाँ अहीन-प्रतिपूर्ण होंगी । वह उत्तम लक्षण, व्यंजन होगा । दैहिक फैलाव, वजन, ऊँचाई आदि की दृष्टि से वह परिपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दर होगा । उसका आकार चन्द्र के सदृश सौम्य होगा । वह कान्तिमान्, देखने में प्रिय एवं सुरूप होगा । तत्पश्चात् माता-पिता पहले दिन उस बालक का कुलक्रमागत पुत्रजन्मोचित अनुष्ठान करेंगे । दूसरे दिन चन्द्र-सूर्य-दर्शनिका नामक जन्मोत्सव करेंगे । छठे दिन जागरिका करेंगे । म्यारहवें दिन वे अशुचि-शोधन-विधान से निवृत्त होंगे । इस बालक के गर्भ में आते ही हमारी धार्मिक आस्था दृढ़ हुई थी, अतः यह 'दृढ़प्रतिज्ञ' नाम से संबोधि किया जाय, यह सोचकर माता-पिता बारहवें दिन उसका 'दृढ़प्रतिज्ञ' यह गुणानुगत, गुणनिष्पन्न नाम रखेंगे । माता-पिता यह जानकर कि अब बालक आठ वर्ष से कुछ अधिक का हो गया है, उसे शुभतिथि, शुभ करण, शुभ दिवस, शुभ नक्षत्र एवं शुभ मुहूर्त में शिक्षण हेतु कलाचार्य के पास ले जायेंगे । तब कलाचार्य बालक दृढ़प्रतिज्ञ को खेल एवं गणित से लेकर पक्षिशब्दज्ञान तक बहत्तर कलाएँ सूत्ररूप में सैद्धान्तिक दृष्टि से, अर्थ रूप में व्याख्यात्मक दृष्टि से, करण रूप में-सधायेंगे, सिखायेंगे-अभ्यास करायेंगे । वे बहत्तर कलाएँ इस प्रकार हैं :
१. लेख, २. गणित, ३. रूप, ४. नाट्य, ५. गीत, ६. वाद्य, ७. स्वरगत, ८. पुष्करगत, ९. समताल, १०. धूत, ११. जनवाद, १२. पाशक, १३. अष्टापद, १४. पौरस्कृत्य, १५. उदक-मृत्तिका, १६. अन्न-विधि, १७. पान-विधि, १८. वस्त्र-विधि, १९. विलेपनविधि, २०. शयन-विधि, २१. आर्या, २२. प्रहेलिका, २३. मागधिका, २४. गाथा, अर्धमागधी, २५. गीतिका, २६. श्लोक, २७. हिरण्य-युक्ति, २८. सुवर्ण-युक्ति, २९. गन्धयुक्ति, ३०. चूर्ण-युक्ति, ३१: आभरण-विधि, ३२. तरुणी-प्रतिकर्म, ३३. स्त्री-लक्षण, ३४. पुरुष-लक्षण, ३५. हय-लक्षण, ३६. गज-लक्षण, ३७. गो-लक्षण, ३८. कुक्कुट-लक्षण, ३९. चक्र-लक्षण, ४०. छत्र-लक्षण, ४१. चर्म-लक्षण, ४२. दण्डलक्षण, ४३. असि-लक्षण, ४४. मणि-लक्षण, ४५. काकणी-लक्षण, ४६. वास्तु-विद्या, ४७. स्कन्धावार-मान, ४८. नगरनिर्माण, ४९. वास्तुनिवेशन, ५०. व्यूह, प्रतिव्यूह, ५१. चार-प्रतिचार, ५२. चक्रव्यूह, ५३. गरुड-व्यूह, ५४. शकट-व्यूह, ५५. युद्ध, ५६. नियुद्ध, ५७. युद्धातियुद्ध, ५८. मुष्टि-युद्ध, ५९. बाह-यद्ध. ६०. लता-यद्ध. ६१. इष शस्त्र, ६२. धनुर्वेद, ६३. हिरण्यपाक, ६४. सुवर्ण-पाक, ६५. वृत्त-खेल, ६६. सूत्र-खेल, ६७. नालिका-खेल, ६८. पत्रच्छेद्य, ६९. कटच्छेद्य, ७०. सजीव, ७१. निर्जीव, ७२. शकुन-रुत । ये बहत्तर कलाएँ सधाकर, इनका शिक्षण देकर, अभ्यास करा कर कलाचार्य बालक को माता-पिता को सौंप देंगे ।
तब बालक दृढप्रतिज्ञ के माता-पिता कलाचार्य का विपुल-प्रचुर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य. वस्त्र. गन्ध. माला तथा अलंकार द्वारा सत्कार करेंगे, सम्मान करेंगे । सत्कार-सम्मान कर उन्हें विपुल, जीविकोचित, प्रीति-दान देंगे । प्रतिविसर्जित करेंगे । बहत्तर कलाओं में पंडित प्रतिबुद्ध नौ अंगों की चेतना, यौवनावस्था में विद्यमान, अठारह देशी भाषाओं में विशारद, गीतप्रिय, संगीत-विद्या, नृत्य-कला आदि में प्रवीण, अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध, बाहुयुद्ध इन सब में दक्ष, विकालचारी, साहसिक, दृढप्रतिज्ञ यों सांगोपांग विकसित होकर सर्वथा भोग-समर्थ हो जाएगा ।
__माता-पिता बहत्तर कलाओं में मर्मज्ञ, अपने पुत्र दृढ़प्रतिज्ञ को सर्वथा भोग-समर्थ जानकर अन्न. पान. लयन. उत्तम वस्त्र तथा शयन-उत्तम शय्या, आदि सुखप्रद सामग्री का उपभोग करने का आग्रह करेंगे । तब कुमार दृढ़प्रतिज्ञ अन्न, (पान, गृह, वस्त्र) शयन आदि भोगों में आसक्त, अनुरक्त, गृद्ध, मूर्च्छित तथा अध्यवसित नहीं होगा । जैसे उत्पल, पद्म,