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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
होती हैं । प्राप्त देव-लोक के अनुरूप उनकी गति, स्थिति तथा उत्पत्ति होती है । वहाँ उनकी स्थिति चौसठ हजार वर्षों की होती है ।
जो ग्राम तथा सन्निवेश आदि पूर्वोक्त स्थानों में मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं, जो एक भात तथा दूसरा जल, इन दो पदार्थों का आहार रूप में सेवन करनेवाले, उदकतृतीय-भात
आदि दो पदार्थ तथा तीसरे जल का सेवन करने वाले, उदकसप्तम, उदकैकादश,, गौतमविशेष रूप से प्रशिक्षित ठिंगने बैल द्वारा विविध प्रकार के मनोरंजक प्रदर्शन प्रस्तुत कर भिक्षा मांगनेवाले, गोव्रतिक, गृहधर्मी को ही कल्याणकारी माननेवाले एवं उसका अनुसरण करने वाले, धर्मचिन्तक, सभासद्, विनयाश्रित भक्तिमार्गी, अक्रियावादी, वृद्ध, श्रावक, ब्राह्मण आदि, जो दूध, दही, मक्खन, घृत, तेल, गुड़, मधु, मद्य तथा मांस को अपने लिए अकल्प्य मानते हैं, सरसों के तैल के सिवाय इनमें से किसी का सेवन नहीं करते, जिनकी आकांक्षाएं बहुत कम होती है,...ऐसे मनुष्य पूर्व वर्णन के अनुरूप मरकर वानव्यन्तर देव होते हैं । वहाँ उनका आयुष्य ८४ हजार वर्ष का बतलाया गया है ।
गंगा के किनारे रहने वाले वानप्रस्थ तापस कई प्रकार के होते हैं जैसे होतृक, पोतृक, कौतृक, यज्ञ करनेवाले, श्राद्ध करनेवाले, पात्र धारण करनेवाले, कुण्डी धारण करने वाले श्रमण, फल-भोजन करनेवाले, उन्मजक, निमजक, संप्रक्षालक, दक्षिणकूलक, उत्तरकूलक, शंखध्मायक, कूलमायक, मृगलुब्धक, हस्तितापस, उद्दण्डक, दिशाप्रोक्षी, वृक्ष की छाल को वस्त्रों की तरह धारण करनेवाले, बिलवासी, वेलवासी, जलवासी, वृक्षमूलक, अम्बुभक्षी, वायुभक्षी, शैवालभक्षी, मूलाहार, कन्दाहार, त्वचाहार, पत्राहार, पुष्पाहार, बीजाहार, अपने आप गिरे हुए, पृथक् हुए कन्द, मूल, छाल, पत्र, पुष्प तथा फल का आहार करनेवाले, पंचाग्नि की आतापना से अपनी देह को अंगारों में पकी हुई सी, भाड़ में भुनी हुई सी बनाते हुए बहुत वर्षों तक वानप्रस्थ पर्याय का पालन करते हैं । मृत्यु-काल आने पर देह त्यागकर वे उत्कृष्ट ज्योतिष्क देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं । वहाँ उनकी स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपमप्रमाण होती है । क्या वे परलोक के आराधक होते हैं ? नहीं ऐसा नहीं होता । अवशेष वर्णन पूर्व की तरह जानना चाहिए ।
(ये) जो ग्राम, सन्निवेश आदि में मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं, प्रव्रजित होकर अनेक रूप में श्रमण होते हैं जैसे कान्दर्पिक, कौकुचिक, मौखरिक, गीतरतिप्रिय, तथा नर्तनशील, जो अपने-अपने जीवन-क्रम के अनुसार आचरण करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-जीवन का पालन करते हैं, पालन कर अन्त समय में अपने पाप-स्थानों का आलोचन-प्रतिक्रमण नहीं करते-वे मृत्युकाल आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सौधर्म-कल्प में-में-हास्य-क्रीडाप्रधान देवों में उत्पन्न होते हैं । वहाँ उनकी गति आदि अपने पद के अनुरूप होती है । उनकी स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की होती है । जो ग्राम...सन्निवेश आदि में अनेक प्रकार के पब्रिाजक होते हैं, जैसे-सांख्य, योगी, कापिल, भार्गव, हंस, परमहंस, बहूदक तथा कुटीचर संज्ञक चार प्रकार के यति एवं कृष्ण पब्रिाजक-उनमें आठ ब्राह्मण-पब्रिाजक होते हैं, जो इस प्रकार है
[४५] कर्ण, करकण्ट, अम्बड, पाराशर, कृष्ण, द्वैपायन, देवगुप्त तथा नारद । [४६] उनमें आठ क्षत्रिय-पब्रिाजक क्षत्रिय जाति में से दीक्षिप्त पख्रिाजक होते हैं । [४७] शीलधी, शशिधर, ननक, भग्नक, विदेह, राजराज, राजराम, तथा बल । [४८] वे पब्रिाजक ऋक्, यजु, साम, अथर्वण-इन चारों वेदों, पाँचवें इतिहास, छठे