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________________ औपपातिक-२६ १७९ का वन्दन-स्तवन करने वाले वे देव पालक, पुष्पक, सौमनस, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, कामगम, प्रीतिगम, मनोगम, विमल तथा सर्वतोभद्रनामक अपने-अपने विमानों से भूमि पर उतरे । वे मृग, महिष, वराह, छगल, दर्दुर, हय, गजपति, भुजग, खड्ग, तथा वृषभ के चिह्नों से अंकित मुकुट धारण किये हुए थे । वे श्रेष्ठ मुकुट सुहाते उनके सुन्दर मस्तकों पर विद्यमान थे । कुंडलों की उज्ज्वल दीप्ति से उनके मुख उद्योतित थे । मुकुटों से उनके मस्तक दीप्त थे । वे लाल आभा लिये हुए, पद्मगर्भ सदृश गौर कान्तिमय, श्वेत वर्णयुक्त थे । शुभ वर्ण, गन्ध, स्पर्श आदि के निष्पादन में उत्तम वैक्रिय लब्धि के धारक थे । वे तरह-तह के वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य तथा मालाएं धारण किये हुए थे । वे परम ऋद्धिशाली एवं परम द्युतिमान् थे । वे हाथ जोड़ कर भगवान् की पर्युपासना करने लगे । उस समय भगवान् महावीर के समीप अनेक समूहों में अप्सराएँ उपस्थित हुई । उनकी दैहिक कान्ति अग्नि में तपाये गये, जल से स्वच्छ किये गये स्वर्ण जैसी थी । वे बाल-भाव को अतिक्रान्त कर यौवन में पदार्पण कर चुकी थीं । उनका रूप अनुपम, सुन्दर एवं सौम्य था । उनके स्तन, नितम्ब, मुख, हाथ, पैर तथा नेत्र लावण्य एवं यौवन से विलसित, उल्लसित थे । दूसरे शब्दों में उनके अंग-अंग में सौन्दर्य-छटा लहराती थी । वे निरुपहत, सरस सिक्त तारुण्य से विभूषित थीं । उनका रूप, सौन्दर्य, यौवन सुस्थिर था, जरा से विमुक्त था । वे देवियाँ सुरम्य वेशभूषा, वस्त्र, आभरण आदि से सुसज्जित थीं । उनके ललाट पर पुष्प जैसी आकृति में निर्मित आभूषण, उनके गले में सरसों जैसे स्वर्ण-कणों तथा मणियों से बनी कंठियाँ, कण्ठसूत्र, कंठले, अठारह लड़ियों के हार, नौ लड़ियों के अर्द्धहार, बहुविध मणियों से बनी मालाएँ चन्द्र, सूर्य आदि अनेक आकार की मोहरों की मालाएँ, कानों में रत्नों के कुण्डल, बालियाँ, बाहुओं में त्रुटिक, बाजूबन्द, कलाइयों में मानिक-जड़े कंकण, अंगुलियों में अंगूठियाँ, कमर में सोने की, करधनियाँ, पैरों में सुन्दर नूपुर, तथा सोने के कड़ले आदि बहुत प्रकार के गहने सुशोभित थे । वे पँचरंगे, बहुमूल्य, नासिका से निकलते निःश्वास मात्र से जो उड़ जाए-ऐसे अत्यन्त हलके, मनोहर, सुकोमल, स्वर्णमय तारों से मंडित किनारों वाले, स्फटिक-तुल्य आभायुक्त वस्त्र धारण किये हुए थीं । उन्होंने बर्फ, गोदुग्ध, मोतियों के हार एवं जल-कण सदृश स्वच्छ, उज्ज्वल, सुकुमार, रमणीय, सुन्दर बुने हुए रेशमी दुपट्टे ओढ़ रखे थे । वे सब ऋतुओं में खिलनेवाले सुरभित पुष्पों की उत्तम मालाएँ धारण किये हुए थीं । चन्दन, केसर आदि सुगन्धमय पदार्थों से निर्मित देहरञ्जन से उनके शरीर रज्जित एवं सुवासित थे, श्रेष्ठ धूप द्वारा धूपित थे । उनके मुख चन्द्र जैसी कान्ति लिये हुए थे । उनकी दीप्ति बिजली की द्युति और सूरज के तेज सदृश थी । उनकी गति, हँसी, बोली, नयनों के हावभाव, पारस्परिक आलापसंलाप इत्यादि सभी कार्य-कलाप नैपुण्य और लालित्ययुक्त थे । उनका संस्पर्श शिरीष पुष्प और नवनीत जैसा मूदुल तथा कोमल था । वे निष्कलुष, निर्मल, सौम्य, कमनीय, प्रियदर्शन थीं । वे भगवान के दर्शन की उत्कण्ठा से हर्षित थीं । [२७] उस समय चंपा नगरी के सिंघाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चत्वरों, चतुर्मुखों, राजमार्गों, गलियों से मनुष्यों की बहुत आवाज आ रही थी, बहुत लोग शब्द कर रहे थे, आपस में कह रहे थे, फुसफुसाहट कर रहे थे । लोगों का बड़ा जमघट था । वे बोल रहे थे । उनकी बातचीत की कलकल सुनाई देती थी । लोगों की मानो एक लहर सी उमड़ी आ रही थी । छोटी-छोटी टोलियों में लोग फिर रहे थे, इकट्ठे हो रहे थे । बहुत से मनुष्य आपस में आख्यान
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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