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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[२१] उस काल, उस समय - जब भगवान् महावीर चम्पा में पधारे, उनके साथ उनके अनेक अन्तेवासी अनगार थे । उनके कई एक आचार यावत् विपाकश्रुत के धारक थे । वे वहीं भिन्न-भिन्न स्थानों पर एक-एक समूह के रूप में, समूह के एक-एक भाग के रूप में तथा फूटकर रूप में विभक्त होकर अवस्थित थे । उनमें कई आगमों की वाचना देते थे । कई प्रतिपृच्छा करते थे । कई अधीत पाठ की परिवर्तना करते थे । कई अनुप्रेक्षा करते थे । उनमें कई आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगनी, तथा निर्वेदनी, यों अनेक प्रकार की धर्म-कथाएँ कहते थे। उनमें कई अपने दोनों घुटनों को ऊँचा उठाये, मस्तक को नीचा किये - - ध्यानरूप कोष्ठ में प्रविष्ट थे । इस प्रकार वे अनगार संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए अपनी जीवन-यात्रा चला रहे थे ।
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वे (अनगार) संसार के भय से उद्विग्न एवं चिन्तित थे । यह संसार एक समुद्र है । जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु द्वारा जनित घोर दुःख रूप प्रक्षुभित प्रचुर जल से यह भरा है । उस जल में संयोग-वियोग के रूप में लहरें उत्पन्न हो रही हैं । चिन्तापूर्ण प्रसंगों से वे लहरें दूर-दूर तक फैलती जा रही हैं । वध तथा बन्धन रूप विशाल, विपुल कल्लोलें उठ रही हैं, जो करुण विलपित तथा लोभ की कलकल करती तीव्र ध्वनि से युक्त हैं । जल का ऊपरी भाग तिरस्कार रूप झागों से ढँका है । तीव्र निन्दा, निरन्तर अनुभूत रोग- वेदना, औरों से प्राप्त होता अपमान, विनिपात, कटु वचन द्वारा निर्भर्त्सना, तत्प्रतिबद्ध ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के कठोर उदय की टक्कर से उठती हुई तरंगों से वह परिव्याप्त है । नित्य मृत्यु भय रूप है । यह संसार रूप समुद्र कषाय पाताल से परिव्याप्त है । इस में लाखों जन्मों में अर्जित पापमय जल संचित है । अपरिमित इच्छाओं से म्लान बनी बुद्धि रूपी वायु के वेग से ऊपर उछलते सघन जल-कणों के कारण अंधकारयुक्त तथा आशा, पिपासा द्वारा उजले झागों की तरह वह धवल है ।
संसार - सागर में मोह के रूप में बड़े-बड़े आवर्त हैं । उनमें भोग रूप भंवर हैं । अत एव दुःख रूप जल भ्रमण करता हुआ, चपल होता हुआ, ऊपर उछलता हुआ, नीचे गिरता हुआ विद्यमान है । अपने में स्थित प्रमाद-रूप प्रचण्ड, अत्यन्त दुष्ट, नीचे गिरते हुए, बुरी तरह चीखते-चिल्लाते हुए क्षुद्र जीव- समूहों से यह (समुद्र) व्याप्त है । वही मानो उसका भयावह घोष या गर्जन है । अज्ञान ही भव-सागर में घूमते हुए मत्स्यों रूप में है । अनुपशान्त इन्द्रियसमूह उसमें बड़े-बड़े मगरमच्छ हैं, जिनके त्वरापूर्वक चलते रहने से जल, क्षुब्ध हो रहा है, नृत्य सा कर रहा है, चपलता - चंचलतापूर्वक चल रहा है, घूम रहा है । यह संसार रूप सागर अरति, भय, विषाद, शोक तथा मिथ्यात्त्व रूप पर्वतों से संकुल है । यह अनादि काल से चले आ रहे कर्म बंधन, तत्प्रसूत क्लेश रूप कर्दम के कारण अत्यन्त दुस्तर है । यह देव - गति, मनुष्यगति, तिर्यक्-गति तथा नरक -गति में गमनरूप कुटिल परिवर्त है, विपुल ज्वार सहित है । चार गतियों के रूप में इसके चार अन्त हैं । यह विशाल, अनन्त, रौद्र तथा भयानक दिखाई देने वाला है । इस संसार सागर को वे शीलसम्पन्न अनगार संयमरूप जहाज द्वारा शीघ्रतापूर्वक पार कर रहे थे ।
वह (संयम-पोत) धृति, सहिष्णुता रूप रज्जू से बँधा होने के कारण निष्प्रकम्प था । संवर तथा वैराग्य रूप उच्च कूपक था । उस जहाज में ज्ञान रूप श्वेत वस्त्र का ऊँचा पाल तना हुआ था । विशुद्ध सम्यक्त्व रूप कर्णधार उसे प्राप्त था । वह प्रशस्त ध्यान तथा तप रूप वायु से अनुप्रेरित होता हुआ प्रधावित हो रहा था । उसमें उद्यम, व्यवसाय, तथा