________________
विपाकश्रुत-१/१/१०
१२१
वक्तव्यता दृढप्रतिज्ञ की भांति ही समझ लेनी चाहिये । हे जम्बू ! इस प्रकार से निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर ने, जो कि मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं; दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है । जिस प्रकार मैंने प्रभु से साक्षात् सुना है; उसी प्रकार हे जम्बू ! मैं तुमसे कहता हूँ । ___ अध्ययन-१ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-२-'उज्झितक' ) [११] हे भगवन् ! यदि मोक्ष-संप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है तो -विपाकसूत्र के द्वितीय अध्ययन का क्या अर्थ बताया है ? इसके उत्तर में श्रीसुधर्मा अनगार ने श्रीजम्बू अनगार को इस प्रकार कहा-हे जम्बू! उस काल तथा उस समय में वाणिजग्राम नामक नगर था जो ऋद्धिस्तिमित-समृद्ध था। उस वाणिजग्राम के ईशानकोण में दूतिपलाश नामक उद्यान था । उस दूतिपलाश संज्ञक उद्यान में सुधर्मा नाम के यक्ष का यक्षायतन था । उस वाणिजग्राम नामक नगर में मित्र नामक राजा था । उस मित्र राजा की श्री नाम की पटरानी थी ।
___ उस वाणिजग्राम नगर में सम्पूर्ण पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीरवाली, यावत् परम सुन्दरी, ७२ कलाओं में कुशल, गणिका के ६४ गुणों से युक्त, २६ प्रकार के विशेषोंविषयगुणों में रमण करने वाली, २१ प्रकार के रतिगुणों में प्रधान, कामशास्त्र प्रसिद्ध पुरुष के ३२ उपचारों में कुशल, सुप्त नव अंगों से जागृत, अठारह देशों की अठारह प्रकार की भाषाओं में प्रवीण, श्रृंगारप्रधान वेषयुक्त गीत, रति, गान्धर्व, नाट्य, में कुशल मन को आकर्षित करने वाली, उत्तम गति-गमन से युक्त जिसके विलास भवन पर ऊँची ध्वजा फहरा रही थी, जिसको राजा की ओर से पारितोषिक रूप में छत्र, चामर-चँवर, बाल व्यजनिका कृपापूर्वक प्रदान किये गए थे और जो कीरथ नामक स्थविशेष से गमनागमन करनेवाली थी; ऐसी काम-ध्वजा नाम की गणिका-वेश्या रहती थी जो हजारों गणिकाओं का स्वामित्व, नेतृत्व करती हुई समय व्यतीत कर रही थी ।
[१२] उस वाणिजग्राम नगर में विजयमित्र नामक एक धनी सार्थवाह निवास करता था । उस विजयमित्र की अन्यून पञ्चेन्द्रिय शरीर से सम्पन्न सुभद्रा नाम की भार्या थी । उस विजयमित्र का पुत्र और सुभद्रा का आत्मज उज्झितक नामक सर्वाङ्गसम्पन्न और रूपवान् बालक था | उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर वाणिजग्राम नामक नगर में पधारे । प्रजा दर्शनार्थ निकली । राजा भी कूणिक नरेश की तरह गया । भगवान् ने धर्म का उपदेश दिया । जनता तथा राजा दोनों वापिस चले गये ।
उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार, जो कि तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके अपने अन्दर धारण किये हुए हैं तथा बेले की तपस्या करते हुए थे । वे भिक्षार्थ वाणिज्यग्राम नगर में पधारे । वहाँ (राजमार्ग में) उन्होंने अनेक हाथियों को देखा । वे हाथी युद्ध के लिये उद्यत थे, जिन्हें कवच पहिनाए हुए थे, जो शरीररक्षक उपकरण आदि धारण किये हुए थे, जिनके उदर दृढ़ बन्धन से बांधे हुए थे । जिनके झूलों के दोनों तरफ बड़े बड़े घण्टे लटक रहे थे । जो नाना प्रकार के मणियों