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विपाकश्रुत- १/१/९
करना- अरे स्मरण करना भी नहीं चाहते ! तो फिर दर्शन व परिभोग भोगविलास की तो बात ही क्या है ? अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं इस गर्भ को अनेक प्रकार की शातना, पातना, गालना, व मारणा से नष्ट कर दूँ । इस प्रकार विचार करके गर्भपात के लिये गर्भ को गिरा देनेवाली क्षारयुक्त, कड़वी, कसैली, औषधियों का भक्षण तथा पान करती हुई उस गर्भ के शातन, पातन, गालन व मारण करने की इच्छा करती है । परन्तु वह गर्भ उपर्युक्त सभी उपायों से भी नाश को प्राप्त नहीं हुआ । तब वह मृगादेवी शरीर से श्रान्त, मन से दुःखित तथा शरीर और मन से खिन्न होती हुई इच्छा न रहते हुए भी विवशता के कारण अत्यन्त दुःख के साथ गर्भ वहन करने लगी ।
गर्भगत उस बालक की आठ नाड़ियाँ अन्दर की ओर और आठ नाड़ियाँ बाहर की ओर बह रही थी । उनमें प्रथम आठ नाड़ियों से रुधिर बह रहा था । इन सोलह नाड़ियों में से दो नाड़ियाँ कर्ण-विवरों में, दो-दो नाड़ियाँ नेत्रविवरों में, दो-दो नासिकाविवरों में तथा दो-दो धमनियों में बार-बार पीव व लोहू बहा रही थी । गर्भ में ही उस बालक को भस्मक नामक व्याधि उत्पन्न हो गयी थी, जिसके कारण वह बालक जो कुछ खाता, वह शीघ्र ही भस्म हो जाता था, तथ वह तत्काल पीव व शोणित के रूप में परिणत हो जाता था । तदनन्तर वह बालक उस पीव वे शोणित को भी खा जाता था । तत्पश्चात् नौ मास परिपूर्ण होने के अनन्तर मृगादेवी ने एक बालक को जन्म दिया जो जन्म से अन्धा और अवयवों की आकृति मात्र रखने वाला था । तदनन्तर विकृत, बेहूदे अंगोपांग वाले तथा अन्धरूप उस बालक को मृगादेवी ने देखा और देखकर भय, त्रास, उद्विग्रता और व्याकुलता को प्राप्त हुई ।
उसने तत्काल धामाता को बुलाकर कहा- तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकान्त में किसी कूड़े-कचरे के ढेर पर फेंक आओ । उस धायमाता ने मृगादेवी के इस कथन को 'बहुत अच्छा' कहकर स्वीकार किया और वह जहाँ विजय नरेश थे वहाँ पर यी और दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगी- 'हे स्वामिन् ! पूरे नव मास हो जाने पर मृगादेवी ने एक जन्मान्ध यावत् अवयवों की आकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया है । उस हुण्ड बेहूदे अवयववाले, विकृतांग, व जन्मान्ध बालक को देखकर मृगादेवी भयभीत हुई और मुझे बुलाया | बुलाकर इस प्रकार कहा- तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकान्त में किसी कूड़े-कचरे के ढेर पर फेंक आओ । अतः हे स्वामिन् ! आप ही मुझे बतलाएँ कि मैं उसे एकान्त में ले जाकर फेंक आऊँ या नहीं ?
उसके बाद वह विजय नरेश उस धायमाता के पास से यह सारा वृत्तान्त सुनकर सम्भ्रान्त होकर जैसे ही बैठे थे उठकर खड़े हो गये । जहाँ रानी मृगादेवी थी, वहां आये और मृगादेवी से कहने लगे- 'हे देवानुप्रिये ! तुम्हारा यह प्रथम गर्भ है, यदि तुम इसको कूड़े-कचरे के ढेर पर फिकवा दोगी तो तुम्हारी भावी प्रजा - सन्तान स्थिर न रहेगी । अतः तुम इस बालक को गुप्त भूमिगृह में रखकर गुप्त रूप से भक्तपानादि के द्वारा इसका पालन-पोषण करो । ऐसा करने से तुम्हारी भावी सन्तति स्थिर रहेगी । तदनन्तर वह मृगादेवी विजय क्षत्रिय के इस कथन को स्वीकृतिसूचक “तथेति" ऐसा कहकर विनम्र भाव से स्वीकार करती है और उस बालक को गुप्त भूमिगृह में स्थापित कर गुप्तरूप से आहारपानादि के द्वारा पालन-पोषण करती हुई समय व्यतीत करने लगी । भगवान् महावीर स्वामी फरमाते हैं - हे गौतम ! यह मृगापुत्र दारक