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________________ १०८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद मोती का आधार सीपसम्पुट, शंख, उत्तम दांत, सींग, शैल-पाषाण, उत्तम काच, वस्त्र और चर्मपात्र-इन सब को भी ग्रहण करना नहीं कल्पता । ये सब मूल्यवान् पदार्थ दूसरे के मन में ग्रहण करने की तीव्र आकांक्षा उत्पन्न करते हैं, आसक्तिजनक हैं, उन्हें संभालने और बढ़ाने की इच्छा उत्पन्न करते हैं, किन्तु साधु को नहीं कल्पता कि वह इन्हें ग्रहण करे । इसी प्रकार पुष्प, फल, कन्द, मूल आदि तथा सन जिनमें सत्तरहवाँ है, ऐसे समस्त धान्यों को भी परिग्रहत्यागी साधु औषध, भैजष्य या भोजन के लिए त्रियोग-मन, वचन, काय से ग्रहण न करे। नहीं ग्रहण करने का क्या कारण है ? अनन्त ज्ञान और दर्शन के धारक, शील, गुण, विनय, तप और संयम के नायक, जगत् के समस्त प्राणियों पर वात्सल्य धारण करनेवाले, त्रिलोकपूजनीय, तीर्थकर जिनेन्द्र देवों ने अपने केवलज्ञान से देखा है कि ये पुष्प, फल आदि त्रस जीवों की योनि हैं । योनि का उच्छेद करना योग्य नहीं है । इसी कारण उत्तम मुनि पुष्प, फल आदि का परिवर्जन करते हैं । और जो भी ओदन, कुल्माष, गंज, तर्पण, मंथु, आटा, भूजी हुई धानी, पलल, सूप, शष्कुली, वेष्टिम, वरसरक, चूर्णकोश, गुड़ पिण्ड, शिखरिणी, वड़ा, मोदक, दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, खाजा, गुड़, खाँड, मिश्री, मधु, मद्य, मांस और अनेक प्रकार के व्यंजन, छाछ आदि वस्तुओं का उपाश्रय में, अन्य किसी के घर में अथवा अटवी में सुविहित-परिग्रहत्यागी, शोभन आचारखाले साधुओं को संचय करना नहीं कल्पता है । इसके अतिरिक्त जो आहार औद्देशिक हो, स्थापित हो, रचित हो, पर्यवजात हो, प्रकीर्ण, प्रादुष्करण, प्रामित्य, मिश्रजात, क्रीतकृत, प्राभृत दोषवाला हो, जो दान के लिए या पुण्य के लिए बनाया गया हो, जो पाँच प्रकार के श्रमणों अथवा भिखारियों को देने के लिए तैयार किया गया हो, जो पश्चात्कर्म अथवा पुरःकर्म दोष से दूषित हो, जो नित्यकर्म-दूषित हो, जो म्रक्षित, अतिरिक्त मौखर, स्वयंग्राह अथवा आहृत हो, मृत्तिकोपलिप्त, आच्छेद्य, अनिसृष्ट हो अथवा जो आहार मदनत्रयोदशी आदि विशिष्ट तिथियों में यज्ञ और महोत्सवों में, उपाश्रय के भीतर या बाहर साधुओं को देने के लिए रक्खा हो, जो हिंसा-सावद्य दोष से युक्त हो, ऐसा भी आहार साधु को लेना नहीं कल्पता है ।। तो फिर किस प्रकार का आहार साधु के लिए ग्रहण करने योग्य है ? जो आहारादि एकादश पिण्डपात से शुद्ध हो, जो खरीदना, हनन करना और पकाना, इन तीन क्रियाओं से कृत, कारित और अनुमोदन से निष्पन्न नौ कौटियों से पूर्ण रूप से शुद्ध हो, जो एषणा के दस दोषों से रहित हो, जो उद्गम और उत्पादनारूप एषणा दोष से रहित हो, जो सामान्य रूप से निर्जीव हुए, जीवन से च्युत हो गया हो, आयुक्षय के कारण जीवनक्रियाओं से रहित हो, शरीरोपचय से रहित हो, अतएव जो प्रासुक हो, संयोग और अंगार नामक मण्डल-दोष से रहित हो, धूम-दोष से रहित हो, जो छह कारणों में से किसी कारण से ग्रहण किया गया हो और छह कायों की रक्षा के लिए स्वीकृत किया गया हो, ऐसे प्रासुक आहारादि से प्रतिदिन निर्वाह करना चाहिए । आगमानुकूल चारित्र का परिपालन करनेवाले साधु को यदि अनेक प्रकार के ज्वर आदि रोग और आतंक या व्याधि उत्पन्न हो जाए, वात, पित्त या कफ का अतिशय प्रकोप हो जाए, अथवा सन्निपात हो जाए और इसके कारण उज्ज्वल, प्रबल विपुल–दीर्घकाल तक भोगने योग्य कर्कश एवं प्रगाढ़ दुःख उत्पन्न हो जाए और वह दुःख अशुभ या कटुक द्रव्य के समान असुख हो, परुष हो, दुःखमय दारुण फल वाला हो, महान् भय उत्पन्न करने वाला
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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