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प्रश्नव्याकरण-२/९/४३
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सिद्धों का शासन है । सुर, नर आदि की परिषद् में उपदिष्ट किया गया है, मंगलकारी है । जैसा मैंने भगवान् से सुना, वैसा ही कहता हूँ । अध्ययन-९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-१० संवरद्वार-५ ) [४४] हे जम्बू ! जो मूरिहित है । आरंभ और परिग्रह रहित है । तथा क्रोध-मानमाया-लोभ से विरत है । वही श्रमण है ।
एक असंयम, राग और द्वेष दो, तीन दण्ड, तीन गौरख, तीन गुप्ति, तीन विराधना, चारकषाय-चार ध्यान- चार संज्ञा-चारविकथा, पांच क्रिया-पांच समिति-पांच महाव्रत छह जीवनिकाय, छह लेश्या, सात भय, आठ मद, नव ब्रह्मचर्यगुप्ति, दशविध श्रमणधर्म, एकादश उपासकप्रतिमा, बारह भिक्षुप्रतिमा, तेरह क्रियास्थान, चौदह भूतग्राम, पंदरह परमाधामी, सोलह गाथा अध्ययन, सत्तरहविधअसंयम, अट्ठारह अब्रह्म, एगूणवीस ज्ञात अध्ययन, बीस असमाधि स्थान, एकवीस शबलदोष, बाईस परीषह, तेईस सूत्रकृत अध्ययन, चोबीस देव, पंचवीस भावना, छब्बीस दसा कल्प व्यवहार उदेसनकाल सत्ताईस अनगारगुण, अट्ठाईस आचार प्रकल्प एगूणतीस पापश्रुतप्रसंग, तीस मोहनीयस्थान, इकतीस सिध्धो के गुण, बत्तीस योग संग्रह और तैतीस आशातना-इन सब संख्यावाले पदार्थों में तथा इसी प्रकार के अन्य पदार्थों में, जो जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित हैं तथा शाश्वत अवस्थित और सत्य हैं, किसी प्रकार की शंका या कांक्षा न करके हिंसा आदि से निवृत्ति करनी चाहिए एवं विशिष्ट एकाग्रता धारण करनी चाहिए। इस प्रकार नियाणा से रहित होकर, ऋद्धि आदि के गौरव से दूर रह कर, निर्लोभ होकर तथा मूढता त्याग कर जो अपने मन, वचन और काय को संवृत करता हुआ श्रद्धा करता है, वही वास्तव में साधु है ।
[४५] श्रीवीवर-महावीर के वचन से की गई परिग्रहनिवृत्ति के विस्तार से यह संवरवरपादप बहुत प्रकार का है । सम्यग्दर्शन इसका विशुद्ध मूल है । धृति इसका कन्द है । विनय इसकी वेदिका है । तीनों लोकों में फैला हुआ विपुल यश इसका सघन, महान् और सुनिर्मित स्कन्ध है । पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएँ हैं । भावनाएँ इस संवरवृक्ष की त्वचा है । धर्मध्यान, शुभयोग तथा ज्ञान रूपी पल्लवों के अंकुरों को यह धारण करनेवाला है । बहुसंख्यक उत्तरगुण रूपी फूलों से यह समृद्ध है । यह शील के सौरभ से सम्पन्न है और वह सौरभ ऐहिक फल की वांछा से रहित सत्प्रवृतिरूप है । यह संवरवृक्ष अनास्रव फलोंवाला है। मोक्ष ही इसका उत्तम बीजसार है । यह मेरु पर्वत के शिखर पर चूलिका के समान मोक्ष के निर्लोभता स्वरूप मार्ग का शिखर है । इस प्रकार का अपरिग्रह रूप उत्तम संवरद्वार रूपी जो वृक्ष है, वह अन्तिम संवरद्वार है ।
ग्राम, आकर, नगर, खेड, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन अथवा आश्रम में रहा हुआ कोई भी पदार्थ हो, चाहे वह अल्प मूल्यवाला हो या बहुमूल्य हो, प्रमाण में छोटा हो अथवा बड़ा हो, वह भले त्रसकाय हो या स्थावरकाय हो, उस द्रव्यसमूह को मन से भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, चांदी, सोना, क्षेत्र, वास्तु भी ग्रहण करना नहीं कल्पता । दासी, दास, भृत्य, प्रेष्य, घोड़ा, हाथी, बैल आदि भी ग्रहण करना नहीं कल्पता । यान, गाड़ी, युग्य, शयन और छत्र भी ग्रहण करना नहीं कल्पता, न कमण्डलु, न जूता, न मोरपींछी, न वीजना और तालवृन्त ग्रहण करना कल्पता है । लोहा, रांगा, तांबा, सीसा, कांसा, चांदी, सोना, मणि और