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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
सात-सात उपवास का, आठवें मास में आठ-आठ उपवास का, नौंवें में नौ-नौं उपवास का, दसवें मास में दस-दस उपवास का, ग्यारहवें मास में ग्यारह-ग्यारह उपवास का, बारहवें मास में बाहर-बारह उपवास का, तेरहवें मास में तेरह-तेरह उपवास का, चौदहवें मास में चौदह-चौदह उपवास का, पंन्द्रहवें मास में पन्द्रह-पन्द्रह उपवास का और सोलहवें मास में सोलह-सोलह उपवास का निरन्तर तप करते हुए विचरने लगे । दिन में उकडी आसन से सूर्य के सन्मुख आतापनाभूमि में आतापना लेते थे और रात्रि में प्रावरणरहित होकर वीरासन से स्थित रहते थे। इस प्रकार मेघ अनगार ने गुणरत्नसंवत्सर नामक तपःकर्म का सूत्र के अनुसार, कल्प के अनुसार तथा मार्ग के अनुसार सम्यक् प्रकार के काय द्वारा स्पर्श किया, पालन किया, शोधित या शोभित किया तथा कीर्तित किया । सूत्र के अनुसार और कल्प के अनुसार यावत् कीर्तन करके श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया । वन्दन-नमस्कार करके बहुत से पष्ठभक्त, अष्टभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त आदि तथा अर्धमासखमण एवं मासखमण आदि विचित्र प्रकार के तपश्चरण करके आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।
[४०] तत्पश्चात् मेघ अनगार उस उराल, विपुल, सश्रीक-प्रयत्नसाध्य, बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी-शिव-धन्य, मांगल्य-उदय, उदार, उत्तम महान् प्रभाव वाले तपःकर्म से शुष्क-नीरस शरीवाले, भूखे, रूक्ष, मांसरहित और रुधिररहित हो गए । उठते-उठते उनके हाड़ कड़कड़ाने लगे । उनकी हड्डियाँ केवल चमड़े से मढ़ी रह गई । शरीर कृश और नसों से व्याप्त हो गया । वह अपने जीव के बल से ही चलते एवं जीव के बल से ही खड़े रहते । भाषा बोलकर थक जाते, बात करते-करते थक जाते, यहाँ तक कि 'मैं बोलूंगा' ऐसा विचार करते ही थक जाते थे । उग्र तपस्या के कारण उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था ।
जैसे कोई कोयले से भरी गाड़ी हो, लकड़ियों से भरी गाड़ी हो, सूखे पत्तों से भरी गाड़ी हो, तिलों से भरी गाड़ी हो, अथवा एरंड के काष्ठ से भरी गाड़ी हो, धूप में डाल कर सुखाई हुई हो, वह गाड़ी खड़बड़ की आवाज करती हुई चलती हुई और आवाज करती हुई ठहरती हैं, उसी प्रकार मेघ अनगार हाड़ों की खड़खड़ाहट के साथ चलते थे और खड़खड़ाहट के साथ खड़े रहते थे । वह तपस्या से तो उपचित-थे, मगर मांस और रुधिर से अपचित-थे । वह भस्म के समूह से आच्छादित अग्नि की तरह तपस्या के तेज से देदीप्यमान थे । वह तपस्तेज की लक्ष्मी से अतीव शोभायमान हो रहे थे । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर धर्म की आदि करनेवाले, तीर्थ की स्थापना करने वाले, यावत् अनुक्रम से चलते हुए, एक ग्राम को पार करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्य था, उसी जगह पधारे । पधार कर यथोचित अवग्रह की आज्ञा लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।
तत्पश्चात् उन मेघ अनगार को रात्रि में, पूर्व रात्रि औ पिछली रात्रि के समय अर्थात् मध्य रात्रि में धर्म-जागरण करते हुए इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-'इस प्रकार मैं इस प्रधान तप के कारण, इत्यादि पूर्वोक्त सब कथन यहाँ कहना चाहिए, यावत् 'भाषा बोलूंगा' ऐसा विचार आते ही थक जाता हैं, तो अभी मुझ में उठने की शक्ति है, वह, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग है, तो जब तक मुझ में उत्थान, कार्य करने की शक्ति, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग है तथा जब तक मेरे धर्माचार्य