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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१/३८
उपवास, बेला, तेला, पंचौला आदि से तथा अर्धमासखमण एवं मासखमण आदि तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए वे विचरने लगे । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर से, गुणशीलक चैत्य से निकले । बाहर जनपदों में विहार करने लगे।
[३९] तत्पश्चात् उन मेघ अनगार ने किसी अन्य समय श्रमण भगवान् महावीर की वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार करके कहा-'भगवन् ! मैं आपकी अनुमति पाकर एक मास की मर्यादा वाली भिक्षुप्रतिमा को अंगीकार करके विचरने की इच्छा करता हूँ। भगवान् ने कहा - 'देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख उपजे वैसा करो । प्रतिबन्ध, न करो-विलम्ब न करो ।' तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर द्वारा अनुमति पाए हुए अनगार एक मास की भिक्षु प्रतिमा अंगीकार करके विचरने लगे । एक मास की भिक्षुप्रतिमा को यथासूत्र-सूत्र के अनुसार, कल्प के अनुसार, मार्ग के अनुसार सम्यक् प्रकार के काय से ग्रहण किया, निरन्तर सावधान रहकर उसका पालन किया, पारणा के दिन गुरु को देकर शेष बचा भोजन करके शोभित किया, अथवा अतिचारों का निवारण करके शोधन किया, प्रतिमा का काल पूर्ण हो जाने पर भी किचिंत् काल अधिक प्रतिमा में रहकर तीर्ण किया, पारण के दिन प्रतिमा सम्बन्धी कार्यों का कथन करके कीर्तन किया । इस प्रकार समीचीन रूप से काया से स्पर्श करके, पालन करके, शोभित या शोधित करके, तीर्ण करके एवं कीर्तन करके पुनः श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा
'भगवन् ! आपकी अनुमति प्राप्त करके मैं दो मास की भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके विचरना चाहता हूँ ।' भगवान् ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो । प्रतिबन्ध मत करो ।' जिस प्रकार पहली प्रतिमा में आलापक कहा है, उसी प्रकार दूसरी प्रतिमा दो मास की, तीसरी मासकी, चौथी चार मास की, पाँचवीं पाँच मास की, छठी छह मास की, सातवीं सात मास की, सात अहोरात्र की, सात अहोरात्र की, सात अहोरात्र की और एक-एक अहोरात्र प्रतिमा की कहना चाहिए । तत्पश्चात् मेघ अनगार ने बारहों भिक्षुप्रतिमाओं का सम्यक् प्रकार से काय से स्पर्श करके, पालन करके, शोधन करके, तीर्ण करके और कीर्तन करके पुनः श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा -भगवन् ! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त करके गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण अंगीकार करना चाहता हूँ ।' भगवान् बोले-हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो । प्रतिबन्ध मत करो ।'
तत्पश्चात् मेघ अनगार पहले महीने में निरन्तर चतुर्थभक्त अर्थात् एकान्तर उपवास की तपस्या के साथ विचरने लगे । दिन में उत्कट आसन से रहते और आतापना लेने की भूमि में सूर्य के सन्मुख आतापना लेते । रात्रि में प्रावरण से रहित होकर वीरासन से स्थित रहते थे । इसी प्रकार दूसरे महीने निरन्तर षष्ठभक्त तप-बेला, तीसरे महीने अष्टमभक्त तथा चौथे मास में दशमभक्त तप करते हुए विचरने लगे । दिन में उत्कट आसन से स्थित रहते, सूर्य के सामने आतापना भूमि में आतापना लेते और रात्रि में प्रावरण रहित होकर वीरासन से रहते, पाँचवें मास में द्वादशम-द्वादशम का निरन्तर तप करने लगे । दिन में उकडू आसन से स्थिर होकर, सूर्य के सन्मुख आतापनाभूमि में आतापना लेते और रात्रि में प्रावरणरहित होकर वीरासन से रहते थे ।
इसी प्रकार के आलापक के साथ छठे मास में छह-छह उपवास का, सातवें मास में