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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१/३७
तुम गजराज थे । वनचरों ने तुम्हारा नाम 'सुमेरुप्रभ' क्खा था । उस सुमेरुप्रभ का वर्ण श्वेत था । शंख के दल के समान उज्जवल, विमल, निर्मल, दही के थक्के के समान, गाय के दूध के फेन के समान और चन्द्रमा के समान रूप था । वह सात हाथ ऊँचा और नौ हाथ लम्बा था । मध्यभाग दस हाथ के परिमाणवाला था । चार पैर, सूंड, पूंछ और जननेन्द्रिय-यह सात अंग प्रतिष्ठित थे । सौम्य, प्रणाणोपेत अंगों वाला, सुन्दर रूप वाला, आगे से ऊँचा, ऊँचे मस्तक वाला, शुभ या सुखद आसन वाला था । उसका पिछला भाग वराह के समान नीचे झुका हुआ था । इसकी कूख बकरी की कुंख जैसी थी और वह छिद्रहीन थी । वह लम्बे उदरवाला, लम्बे होठवाला और लम्बी सूंडवाला था । उसकी पीठ धनुष पृष्ठ जैसी आकृति वाली थी । उसके अन्य अवयव भलीभाँति मिले हुए, प्रमाणयुक्त, गोल एवं पुष्ट थे । पूंछ चिपकी हुई तथा प्रमाणोपेत थी । पैर कछुए जैसे परिपूर्ण और मनोहर थे । बीसों नाखून श्वेत, निर्मल, चिकने और निरुपहत थे । छह दाँत थे ।
हे मेघ ! वहां तुम बहुत से हाथियों, हाथिनियों, लोट्टकों, लोट्टिकाओं, कलभों और कलभिकाओं से परिवृत होकर एक हजार हाथियों के नायक, मार्गदर्शक, अगुवा, प्रस्थावक यूथपति और यूथ की वृद्धि करनेवाले थे । इनके अतिरिक्त अन्य बहुत-से अकेले हाथी के बच्चों का आधिपत्य करते हए. स्वामित्व, नेतत्व करते हए एवं उनका पालन-रक्षण करते हए विचरण कर रहे थे । हे मेघ ! तुम निस्तर मस्त, सदा क्रीडापरायण कंदर्परति-क्रीडा करने में प्रीति वाले, मैथुनप्रिय, कामभोग से अतृप्त और कामभोग की तृष्णा वाले थे । बहुत से हाथियों वगैरह से परिवृत्त होकर वैताढ्य पर्वत के पादमूल में, पर्वतों में, दरियों में, कुहरों में, कंदराओं में, उज्झरों, झरणोंमें, विदरों में, गड़हों में, पल्वलों में, चिल्ललों में, कटक में, कटपल्लवों में, तटों में, अटवीमें, टंकों में, कूटों में, पर्वत के शिखरों पर, प्राग्भारों में, मंचों पर, काननों में, वनों में, वनखंडों में, वनों की श्रेणियों में,नदियों में, नदीकक्षों में, यूथों में, नदियों के संगमस्थलों में, वापियों में, पुष्करणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, सरोवरों की पंक्तियों में, सरः-सर पंक्तियों में, वनचरों द्वारा तुम्हें विचार दी गई थी । ऐसे तुम बहुसंख्यक हाथियों आदि के साथ, नाना प्रकार के तरुपल्लवों, पानी और घास का उपयोग करते हुए निर्भय, और उद्धेगरहित होकर सुख के साथ विचरते थे-रहते थे ।
तत्पश्चात् एक बार कदाचित प्रावृट्, वर्षा, शरद् हेमन्त और वसन्त, इस पांच ऋतुओं के क्रमशः व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्म ऋतु का समय आया । ज्येष्ठ मास में, वृक्षों की आपस की रगड़ से उत्पन्न हुई तथा सूखे घास, पत्तों और कचरे से एवं वायु के वेग से प्रदीप्त हुई अत्यन्त भयानक अग्नि से उत्पन्न वन के दावानल की ज्वालाओं से वन का मध्य भाग सुलग उठा । दिशाएँ धुएँ से व्याप्त हो गई । प्रचण्ड वायु-वेग से अग्नि की ज्वालाएँ टूट जाने लगी
और चारों ओर गिरने लगीं । पोले वृक्ष भीतर ही भीतर जलने लगे । वन-प्रदेशों के नदीनालों का जल मृत मृगादिक के शवों से सड़ने लगा । उनका कीचड़ कीड़ों से व्याप्त हो गया। उनके किनारों का पानी सूख गया । शृंगारक पक्षी दीनता पूर्वक आक्रन्दन करने लगे । उत्तम वृक्षों पर स्थित काक अत्यन्त कठोर और अनिष्ट शब्द करने लगे । उन वृक्षों के अग्रभाग अग्निकणों के कारण मूंगे के समान लाल दिखाई देने लगे । पक्षियों के समूह प्यास से पीड़ित लोकर पंख ढीले करके, जिह्वा एवं तालु को बाहर निकाल करके तथा मुँह फाड़कर सांसे लेने