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________________ भगवती-३३/३ से १२/१०२६ भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथ्वीकायिकों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? गौतम ! औधिक उद्देशक के अनुसार, यावत् 'वेदते हैं' तक कहना। इसी प्रकार इसी अभिलाप से, औधिक शतक अनुसार, ग्यारह ही उद्देशक 'अचरमउद्देशक' पर्यन्त कहना । [१०२७] कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों को शतक समान नीललेश्यी भवसिद्धिक का शतक भी कहना । [१०२८] कापोतलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीवों का शतक भी इसी प्रकार कहना। [१०२९] भगवन् ! अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पांच प्रकार के, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । भवसिद्धिकशतक समान अभवसिद्धिकशतक भी कहना; किन्तु 'चरम' और 'अचरम' को छोड़कर शेष नौ उद्देशक कहना चाहिए । शेष पूर्ववत् । [१०३०] इसी प्रकार कृष्णलेश्यी अभवसिद्धिक शतक भी कहना । [१०३१] इसी प्रकार नीललेश्यी अभवसिद्धिक शतक भी जानना । [१०३२] कापोतलेश्यी अभवसिद्धिक शतक भी इसी प्रकार कहना । इस प्रकार (नौवें से बारहवें तक) चार अभवसिद्धिक शतक हैं । इनमें प्रत्येक के नौ-नौ उद्देशक हैं । इस प्रकार एकेन्द्रिय जीवों के ये बारह शतक होते हैं । शतक-३३ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (शतक-३४) -: शतकशतक-१ : उद्देशक-१ [१०३३] भगवन् ! एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! पांच प्रकार के, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । इनके भी प्रत्येक के चार-चार भेद वनस्पतिकायिकपर्यन्त कहने चाहिए। भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिमी चरमान्त में अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य है, तो हे भगवन् ! वह कितने समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है ? गौतम एक समय की, दो समय की अथवा तीन समय की । भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि वह एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है। हे गौतम ! मैंने सात श्रेणियाँ कहीं हैं, यथा-ऋज्वायता, एकतोवक्रा, उभयतोवक्रा, एकतः खा, उभयतः खा, चक्रवाल और अर्द्धचक्रवाल । जो पृथ्वीकायिक जीव ऋज्वायता श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह एक समय की विग्रहगति से जो एकतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह दो समय की विग्रहगति से जो उभयतोवक्रा श्रेणी से उत्पन्न होता है, वह तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न होता है । इस कारण से हे गौतम ! यह कहा जाता है । ___ भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव जो रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त में मरणसमुद्घात करके इस रत्नप्रभापृथ्वी के पश्चिमदिशा के चरमान्त में पर्याप्त
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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