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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
पांच प्रकार के । इस अभिलाप से वनस्पतिकायिक पर्यन्त पूर्ववत् प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं । भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों को कितनी कर्मप्रकृतियाँ हैं ? गौतम ! पूर्वोक्त अभिलाप से औधिक अनन्तरोपपन्नक के अनुसार 'वेदते हैं', तक कहना। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।'
भगवन् ! परम्परोपपन्नक कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पांच प्रकार के । यथा-पृथ्वीकायिक इत्यादि । इस प्रकार वनस्पतिकायिकपर्यन्त चार-चार भेद कहना । भगवन् ! परम्परोपपन्नककृष्णलेश्यीअपर्याप्तसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ हैं ? गौतम ! औधिक परम्परोपपन्नक उद्देशक के अनुसार 'वेदते हैं' तक कहना।
औधिक एकेन्द्रियशतक के ग्यारह उद्देशक समान यावत् अचरम और चरम कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय पर्यन्त कृष्णलेश्यीशतक में भी कहना ।
| शतक-३३ शतकशतक-३ से १२ | [१०२३] कृष्णलेश्यी एकेन्द्रिय शतक के समान नीललेश्यी एकेन्द्रिय जीवों का समग्र शतक कहना । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।'
[१०२४] कापोतलेश्यी एकेन्द्रिय को इसी प्रकार शतक कहना । किन्तु ‘कापोतलेश्या', ऐसा पाठ कहना ।
[१०२५] भगवन् ! भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! पांच प्रकार के, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक इनके चार-चार भेद वनस्पतिकायिक पर्यन्त पूर्ववत् कहना । भगवन् ! भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीव के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? गौतम ! प्रथम एकेन्द्रियशतक के समान भवसिद्धिकशतक भी कहना चाहिए । उद्देशकों की परिपाटी भी उसी प्रकार अचरम पर्यन्त कहना । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।'
[१०२६] भगवन् ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय जीव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पांच प्रकार के, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । भगवन् ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! दो प्रकार के, यथासूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक । भगवन् ! कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! दो प्रकार के, यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । इसी प्रकार बादरपृत्वीकायिकों के भी दो भेद हैं । इसी अभिलाप से उसी प्रकार प्रत्येक के चार-चार भेद कहने चाहिए ।
- भगवन् ! कृष्णलेश्यी-भवसिद्धिक-अपर्याप्त-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? गौतम ! औधिक उद्देशक के समान 'वेदते हैं', तक कहना ।
भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! पांच प्रकार के, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक । भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यी-भवसिद्धिक-पृथ्वीकायिक कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! दो प्रकार के, यथासूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक । इसी प्रकार अप्कायिक आदि के भी दो-दो भेद कहने चाहिए ।