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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
भगवान् महावीर ने ऐसा आख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त एवं प्ररूपित किया है- कहा है- यावत् प्रतिकूल हों तो उन्हें बोलना कल्पनीय नहीं है । देवानुप्रिय ! तुम अपनी पत्नी रेवती के प्रति ऐसे वचन बोले, इसलिए तुम इस स्थान की आलोचना करो, प्रायश्चित्त स्वीकार करो ।
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[ ५६ ] तब श्रमणोपासक महाशतक ने भगवान् गौतम का कथन 'आप ठीक फरमाते हैं' कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया, अपनी भूल की आलोचना की, यथोचित प्रायश्चित्त किया । तत्पश्चात् भगवान् गौतम श्रमणोपासक महाशतक के पास से खाना हुए, राजगृह नगर के बीच से गुजरे, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आए । भगवान् को वंदन - नमस्कार किया । वंदन - नमस्कार कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए धर्माराधना में लग गए । तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर, किसी समय राजगृह नगर से प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विहार कर गए ।
यों श्रमणोपासक महाशतक ने अनेकविध व्रत, नियम आदि द्वारा आत्मा को भावित किया । बीस वर्ष तक श्रमणोपासक - का पालन किया । ग्यारह उपासक - प्रतिमाओं की भली भांति आराधना की । एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर आलोचना, प्रतिक्रमण कर, मरणकाल आने पर समाधिपूर्वक देह त्याग किया । वह सौधर्म देवलोक में अरुणावतसक विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ । वहां आयु चार पल्योपम की है । महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा ।
अध्ययन-८ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
अध्ययन - ९ 'नंदिनीपिता'
[५७] जम्बू ! उस काल- उस समय श्रावस्ती नगरी थी, कोष्ठक चैत्य था । जितशत्रु राजा था । श्रावस्ती नगरी में नन्दिनीपिता नामक समृद्धिशाली गाथापति निवास करता था । उसकी चार करोड़ स्वर्ण मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रक्खी थीं, चार करोड़ स्वर्णमुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा चार करोड़ स्वर्ण मुद्राएं घर की साधन-सामग्री में लगी थीं । उसके चार गोकुल थे । प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं । उसकी पत्नी का नाम अश्विनी था । भगवान् महावीर श्रावस्ती में पधारे । समवसरण हुआ । आनन्द की तरह नन्दिनीपिता ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया । भगवान् अन्य जनपदों में विहार कर गए ।
नन्दिनीपिता श्रावक-धर्म स्वीकार कर श्रमणोपासक हो गया, धर्माराधनापूर्वक जीवन बिताने लगा । तदनन्तर श्रमणोपासक नन्दिनीपिता को अनेक प्रकार से अणुव्रत, गुणव्रत आदि की आराधना द्वारा आत्मभावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए । उसने आनन्द आदि की तरह अपने ज्येष्ठ पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्त्व सौंपा । स्वयं धर्मोपासना में निरत रहने लगा । नन्दिनीपिता ने बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया । आनन्द आदि से इतना अन्तर है- देह त्याग कर वह अरूणगव विमान में उत्पन्न हुआ । महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध - मुक्त होगा ।
अध्ययन - ९ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
अध्ययन - १० 'लेइयापिता'
[५८] जम्बू ! उस काल- उस समय - श्रावस्ती नगरी थी, कोष्ठक चैत्य था । जितशत्रु