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________________ उपासकदशा-८/५४ २६९ आई । महाशतक से पहले की तरह बोली । उसने दूसरी बार, तीसरी बार, फिर वैसा ही कहा। अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया । उसने अवधिज्ञान का उपयोग लगाया । अवधिज्ञान द्वारा जानकर उसने अपनी पत्नी खेती से कहा-मौत को चाहने वाली रेवती ! तू सात रात के अन्दर अलसक नामक रोग से पीडित होकर आत-व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई आयु-काल पूरा होने पर अशान्तिपूर्वक मरकर अधोलोक में प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्यवाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी । श्रमणोपासक महाशतक के यों कहने पर रेवती अपने आप से कहने लगी-श्रमणोपासक महाशतक मुझ पर रुष्ट हो गया है, मेरे प्रति उसमें दुर्भावना उत्पन्न हो गई है, वह मेरा बुरा चाहता है, न मालूम मैं किस बुरी मौत से मार डाली जाऊं । यों सोचकर वह भयभीत, त्रस्त, व्यथित, उद्विग्न होकर, डरती-डरती धीरे-धीरे वहाँ से निकली, घर आई । उसके मन में उदासी छा गई, यावत् व्याकुल होकर सोच में पड़ गई । तत्पश्चात् रेवती सात रात के भीतर अलसक रोग से पीडित हो गई । व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई वह अपना आयुष्य पूरा कर प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई । [५५] उस समय श्रमण भगवान् महावीर राजगृह में पधारे । समवसरण हुआ । परिषद् जुड़ी, धर्म-देशना सुन कर लौट गई । श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम को सम्बोधित कर कहा-गौतम ! यही राजगृह नगर में मेरा अन्तेवासी-महाशतक नामक श्रमणोपासक पोषधशाला में अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगा हुआ, आहार-पानी का परित्याग किए हुए मृत्यु की कामना न करता हुआ, धर्माराधना में निरत है । महाशतक की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त, यावत् पोषधशाला में महाशतक के पास आई । श्रमणोपासक महाशतक से विषय-सुख सम्बन्धी वचन बोली । उसने दूसरी बार तीसरी बार फिर वैसा ही कहा । अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया । उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया । अवधिज्ञान से जान कर रेवती से कहा यावत् नैरयिकों में उत्पन्न होओगी । - गौतम ! सत्य, तत्त्वरूप, तथ्य, सद्भूत, ऐसे वचन भी यदि अनिष्ट-अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, अमनाम-ऐसे हों तो अन्तिम मरणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए उन्हें बोलना कल्पनीय नहीं है । इसलिए देवानुप्रिय ! तुम श्रमणोपासक महाशतक के पास जाओ और उसे कहो कि अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन प्रतिकूल हों तो बोलना कल्पनीय नहीं है । देवानुप्रिय ! तुमने खेती को सत्य किन्तु अनिष्ट वचन कहे । इसलिए तुम इस स्थान की आलोचना करो, यथोचित प्रायश्चित स्वीकार करो । भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन 'आप ठीक फरमाते हैं, यों कह कर विनयपूर्वक सुना । वे वहां से चले। राजगृह नगर के बीच से गुजरे, श्रमणोपासक महाशतक के घर पहुंचे । श्रमणोपासक महाशतक ने जब भगवान् गौतम को आते देखा तो वह हर्षित एवं प्रसन्न हुआ । उन्हें वंदननमस्कार किया। भगवान् गौतम ने श्रमणोपासक महाशतक से कहा-देवानुप्रिय ! श्रमण
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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