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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
जितशत्रु राजा था । कुंडकौलिक गाथापति था । उसकी पत्नी पूषा थी । छह करोड़ स्वर्णमुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में छह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं व्यापार में, छह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं -धन, धान्य में लगी थीं । छह गोकुल थे । प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं । भगवान् महावीर पधारे । कामदेव की तरह कुंडकौलिक ने भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया । यावत् श्रमण निर्ग्रन्थों को शुद्ध आहार- पानी आदि देते हुए धर्माराधना में निरत रहने लगा ।
[३८] एक दिन श्रमणोपासक कुंडकौलिक दोपहर के समय अशोक वाटिका में गया । पृथ्वी - शिलापट्ट पहुंचा । अपने नाम से अंकित अंगूठी और दुपट्टा उतारा । उन्हें पृथ्वीशिलापट्टक पर रखा । श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति - अनुरूप उपासना-रत हुआ । श्रमणोपासक कुंडकौलिक के समक्ष एक देव प्रकट हुआ । उस देव ने कुंडकौलिक की नामांकित मुद्रिका और दुपट्टा पृथ्वीशिलापट्टक से उठा लिया । वस्त्रों में लगी छोटी-छोटी घंटियों की झनझनाहट के साथ वह आकाश में अवस्थित हुआ, श्रमणोपासक कुंडकौलिक से बोला- देवानुप्रिय ! मंखलिपुत्र गोशालक की धर्म - प्रज्ञप्ति - सुन्दर है । उसके अनुसार उत्थानकर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम, उपक्रम । सभी भाव - नियत है । उत्थान पराक्रम इन सबका अपना अस्तित्व है, सभी भाव नियत नहीं हैं - भगवान् महावीर की यह धर्म-प्रज्ञप्ति - असुन्दर है ।
तब श्रमणोपासक कुंडकौलिक ने देव से कहा- उत्थान का कोई अस्तित्व नहीं है, सभी भाव नियत हैं - गोशालक की यह धर्म-शिक्षा यदि उत्तम है और उत्थान आदि का अपना महत्त्व है, सभी भाव नियत नहीं है- भगवान् महावीर की यह धर्म - प्ररूपणा अनुत्तम है - तो देव ! तुम्हें जो ऐसा दिव्य ऋद्धि, द्युति तथा प्रभाव उपलब्ध, संप्राप्त और स्वायत्त है, वह सब क्या उत्थान, पौरुष और पराक्रम से प्राप्त हुआ है, अथवा अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपौरुष या अपराक्रम से ? वह देव श्रमणोपासक कुंडकौलिक से बोला- देवानुप्रिय ! मुझे यह दिव्य ऋद्धि, द्युति एवं प्रभाव - यह सब बिना उत्थान, पौरुष एवं पराक्रम से ही उपलब्ध हुआ है । तब श्रमणोपासक कुंडकौलिक ने उस देव से कहा- देव ! यदि तुम्हें यह दिव्य ऋद्धि प्रयत्न, पुरुषार्थ, पराक्रम आदि किए बिना ही प्राप्त हो गई, तो जिन जीवों में उत्थान, पराक्रम आदि नहीं हैं, वे देव क्यों नहीं हुए ? देव ! तुमने यदि दिव्य ऋद्धि उत्थान, पराक्रम आदि द्वारा प्राप्त की है तो “उत्थान आदि का जिसमें स्वीकार नहीं है, सभी भाव नियत हैं, गोशालक की यह धर्म- शिक्षा सुन्दर है तथा जिसमें उत्थान आदि का स्वीकार है, सभी भाव नियत नहीं है, भगवान् महावीर की वह शिक्षा असुन्दर है" तुम्हारा यह कथन असत्य है । श्रमणोपासक कुंडकौलिक द्वारा यों कहे जाने पर वह देव शंका युक्त तथा कालुष्य युक्त हो गया, कुछ उत्तर नहीं दे सका । उसने कुंडकौलिक की नामांकित अंगूठी और दुपट्टा वापस पृथ्वीशिलापट्ट्क पर रख दिया तथा जिस दिशा से आया था, वह उसी दिशा की ओर लौट गया । उस काल और उस समय भगवान् महावीर का काम्पिल्यपुर में पदार्पण हुआ । श्रमणोपासक कुंडकौलिक ने जब यह सब सुना तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और भगवान् के दर्शन के लिए कामदेव की तरह गया, भगवान् की पर्युपासना की, धर्म देशना सुनी ।
[३९] भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक कुंडकौलिक से कहा-कुंडकौलिक ! कलं दोपहर के समय अशोकवाटिका में एक देव तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ । वह तुम्हारी नामांकित