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________________ २५४ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद क्रुद्ध होकर सरटि के साथ उसके शरीर पर चढ़ गया । पिछले भाग से उसके गले में तीन लपेट लगा दिए । लपेट लगाकर अपने तीखे, जहरीले दांतों से उसकी छाती पर डंक मारा । श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र वेदना को सहनशीलता के साथ झेला । सर्परूपधारी देव ने जब देखा - श्रमणोपासक कामदेव निर्भय है, वह उसे निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित एवं विपरिणामित नहीं कर सका है तो श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर वह धीरे-धीरे पीछे हटा । पोषध - शाला से बाहर निकला । देव-मायाजनित सर्प रूप का त्याग किया । वैसा कर उसने उत्तम, दिव्य देव रूप धारण किया । उस देव के वक्षस्थल पर हार सुशोभित हो रहा था यावत् दिशाओं को उद्योतित प्रभासित, प्रसादित, दर्शनीय, मनोज्ञ, प्रतिरूप किया । वैसा कर श्रमणोपासक कामदेव की पोषधशाला में प्रविष्ट हुआ । प्रविष्ट होकर आकाश में अवस्थित हो छोटी-छोटी घण्टिकाओं से युक्त पांच वर्णों के उत्तम वस्त्र धारण किए हुए वह श्रमणोपासक कामदेव से यों बोलाश्रमणोपासक कामदेव ! देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो, पुण्यशाली हो, कृत-कृत्य हो, कृतलक्षणवाले हो । देवानुप्रिय ! तुम्हें निर्ग्रन्थ-प्रवचन में ऐसी प्रतिपति - विश्वास - आस्था सुलब्ध है, सुप्राप्त है, स्वायत्त है, निश्चय ही तुमने मनुष्य जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त कर लिया । देवानुप्रिय ! बात यों हुई - शक्र -देवेन्द्र देवराज इन्द्रासन पर स्थित होते हुए चौरासी हजार सामानिक देवों यावत् बहुत से अन्य देवों और देवियों के बीच यों आख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त या प्ररूपित किया- कहा । देवो ! जम्बू द्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में, चंपा नगरी में श्रमणोपासक कामदेव पोषधशाला में पोषध स्वीकार किए, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ कुश के बिछौने पर अवस्थित हुआ श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप उपासनारत है । कोई देव, दानव, गन्धर्व द्वारा निर्ग्रन्थ- प्रवचन से वह विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नहीं किया जा सकता । शक्र, देवेन्द्र, देवराज के इस कथन में मुझे श्रद्धा, प्रतीति नहीं हुआ । वह मुझे अरुचिकर लगा । मैं शीघ्र यहां या । देवानुप्रिय ! जो ऋद्धि, धुति, यश, बल, वीर्य, पुरुषोचित पराक्रम तुम्हें उपलब्ध प्राप्त तथा अभिसमन्वागतहै, वह सब मैंने देखा । देवानुप्रिय ! मैं तुमसे क्षमा-याचना करता हूं । मुझे क्षमा करो । आप क्षमा करने में समर्थ हैं । मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा । यों कहकर पैरों में पड़कर, उसने हाथ जोड़कर बार-बार क्षमा-याचना की । जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर चला गया । तब श्रमणोपासक कामदेव न यह जानकर कि अब उपसर्ग - विध्न नहीं रहा है, अपनी प्रतिमा का पारण- समापन किया । [२६] श्रमणोपासक कामदेव ने जब यह सुना कि भगवान् महावीर पधारे हैं, तो सोचा, मेरे लिए यह श्रेयस्कर है, मैं श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार कर, वापस लौट कर पोषध का समापन करूं । यों सोच कर उसने शुद्ध तथा सभा योग्य मांगलिक वस्त्र भलीभांति पहने, अपने घर से निकल कर चंपा नगरी के बीच से गुजरा, जहां पूर्णभद्र चैत्य था, शंख श्रावक की तरह आया । आकर पर्युपासना की । श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक कामदेव तथा परिषद् को धर्म देशना दी । [२७] श्रमण भगवान् महावीर ने कामदेव से कहा- कामदेव ! आधी रात के समय एक देव तुम्हारे सामने प्रकट हुआ था । उस देव ने एक विकराल पिशाच का रूप धारण किया। वैसा कर, अत्यन्त क्रुद्ध हो, उसने तलवार निकाल कर तुम से कहा- कामदेव ! यदि
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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