________________
ज्ञाताधर्मकथा-२/१/१/२२०
२३३
अध्ययन - १ काली
भगवन् ! श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त महावीर भगवान् ने यदि प्रथम वर्ग के पाँच अध्ययन कहे हैं तो हे भगवन् ! प्रथम अध्ययन का श्रमण यावत् सिद्धिप्राप्त भगवान् ने क्या अर्था है ? जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था, गुणशील चैत्य था, श्रेणिक राजा था और चेलना रानी थी । उस समय स्वामी का पदार्पण हुआ । वन्दना करने के लिए परिषद् निकली, यावत् परिषद् भगवान् की पर्युपासना करने लगी । उस काल और उस समय में, काली नामक देवी चमरचंचा राजधानी में, कालावतंसक भवन में, काल नामक सिंहासन पर आसीन थी । चार हजार सामानिक देवियों, चार महत्तरिका देवियों, परिवार सहित तीनों परिषदों, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्यान्य कालावतंसक भवन के निवासी असुरकुमार देवों और देवियों से परिवृत होकर जोर से बजने वाले वादित्र नृत्य गीत आदि से मनोरंजन करती हुई विचर रही थी ।
वह काली देवी इस केवल - कल्प जम्बूद्वीप को अपने विपुल अवधिज्ञान से उपयोग लगाती हुई देख रही थी । उसने जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में, राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में, यथाप्रतिरूप - साधु के लिए उचित स्थान की याचना करके, संयम और तप द्वारा आत्मा को भावित श्रमण भगवान् महावीर को देखा । वह हर्षित और सन्तुष्ट हुई । उसका चित्त आनन्दित हुआ । मन प्रीतियुक्त हो गया । वह अपहृतहृदय होकर सिंहासन से उठी । पादपीठ से नीचे उतरी । उसने पादुका उतार दिए । फिर तीर्थंकर भगवान् के सम्मुख सात-आठ पैर आगे बढ़ी । बायें घुटने को ऊपर रखा और दाहिने घुटने को पृथ्वी पर टेक दिया। फिर मस्तक कुछ ऊँचा किया । कड़ों और बाजूबंदों से स्तंभित भुजाओं को मिलाया । दोनों हाथ जोड़कर कहने लगीयावत् सिद्धि को प्राप्त अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो । यावत् सिद्धि को प्राप्त करने की इच्छा वाले श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो । यहाँ रही हुई मैं, वहाँ स्थित भगवान् को वन्दना करती हूँ । वहाँ स्थिथ श्रमण भगवान् महावीर, यहाँ रही हुई मुझको देखें । इस प्रकार कह कर वन्दना की, नमस्कार किया । पूर्व दिशा की ओर मुख करके अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन हो गई । तत्पश्चात् काली देवी को इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ - 'श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करके यावत् उनकी पर्युपासना करना मेरे लिए श्रेयस्कर है ।' आभियोगिक देवों को बुलाकर उन्हें कहा- -'देवानुप्रियो ! श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में विराजमान हैं, इत्यादि जैसे सूर्याभ देव ने अपने आभियोगिक देवों को आज्ञा दी थी, उसी प्रकार काली देवी ने भी आज्ञा दी यावत् 'दिव्य और श्रेष्ठ देवताओं के गमन के योग्य यान- विमान बनाकर तैयार करो, यावत् मेरी आज्ञा वापिस सौंपों ।' आभियोगिक देवों ने आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा लौटा दी । यहाँ विशेषता यही है कि हजार योजन विस्तार वाला विमान बनाया । शेष वर्णन सूर्याभ के समान । सूर्याभ की तरह ही भगवान् के पास जाकर अपना नाम - गोत्र कहा, उसी प्रकार नाटक दिखलाया । फिर वन्दन - नमस्कार करके काली देवी वापिस चली गई । भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया, कहा- 'भगवन् ! काली देवी की