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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१९/२१७ २३१ उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, अत्यन्त गाढ़ी, प्रचंड और दुःखद वेदना उत्पन्न हो गई । उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया । अतएव उसे दाह होने लगा । कण्डरीक ऐसी रोगमय स्थिति में रहने लगा । कंडरीक राजा राज्य में, राष्ट्र में और अन्तःपुर में यावत् अतीव आसक्त बना हुआ, आर्त्तध्यान के वशीभूत हुआ, इच्छा के बिना ही, पराधीन होकर, काल करके नीचे सातवीं पृथ्वी में सर्वोत्कृष्ट स्थिति वाले नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुआ । इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! यावत् जो साधु-साध्वी दीक्षित होकर पुनः कामभोगों की इच्छा करता है, वह यावत् कंडरीक राजा की भाँति संसार में पुनः पुनः पर्यटन करता है । [२१८] पुंडरीकिणी नगरी से रवाना होने के पश्चात् पुंडरीक अनगार वहाँ पहुँचे जहाँ स्थविर भगवान् थे । उन्होंने स्थविर भगवान् को वन्दना की, नमस्कार किया । स्थविर के निकट दूसरी बार चातुर्याम धर्म अंगीकार किया । फिर षष्ठभक्त के पारणक में, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, (दूसरे प्रहर में ध्यान किया) तीसरे प्रहर में यावत् भिक्षा के लिए अटन करते हुए ठंडा और रूखा भोजन-पान ग्रहण किया । ग्रहण करके यह मेरे लिए पर्याप्त है, ऐसा सोच कर लौट आये । स्थविर भगवान् के पास आये । भोजन-पानी दिखलाया । स्थविर भगवान् की आज्ञा होने पर मूर्च्छाहीन होकर तथा गृद्धि, आसक्ति एवं तल्लीनता से रहित होकर, जैसे सर्प बिल में सीधा चला जाता है, उसी प्रकार उस प्रासुक तथा एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार को उन्होंने शरीर रूपी कोठे में डाल लिया । पुंडरीक अनगार उस कालातिक्रान्त रसहीन; खराब रस वाले तथा ठंडे और रूखे भोजन पानी का आहार करके मध्य रात्रि के समय धर्मजागरण कर रहे थे । तब वह आहार उन्हें सम्यक् रूप से परिणत न हुआ । उस समय पुंडरीक अनगार के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रचण्ड एवं दुःखरूप, दुस्सह वेदना उत्पन्न हो गई । शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में दाह होने लगा । तत्पश्चात् पुंडरीक अनगार निस्तेज, निर्बल, वीर्यहीन और पुरुषकार - पराक्रमहीन हो गये । उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा - ' यावत् सिद्धिप्राप्त अरिहंतों को नमस्कार हो । मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक स्थविर भगवान् को नमस्कार हो । स्थविर के निकट पहले भी मैंने समस्त प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का त्याग किया था' इत्यादि कहकर यावत् शरीर का भी त्याग करके आलोचना प्रतिक्रमण करके, कालमास में काल करके सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में देवपर्याय में उत्पन्न हुए । वहाँ से अनन्तर च्यवन करके, सीधे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेंगे । यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु या साध्वी दीक्षित होकर मनुष्य-संबन्धी कामभोगों में आसक्त नहीं होता, अनुरक्त नहीं होता, यावत् प्रतिघात को प्राप्त नहीं होता, वह इसी भव व बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणरूप, मंगलकारक, देव और चैत्य समान उपासना करने योग्य होता है । इसके अतिरिक्त वह परलोक में भी राजदण्ड, राजनिग्रह, तर्जना और ताड़ना को प्राप्त नहीं होता, यावत् चतुर्गति रूप संसारकान्तार को पार कर जाता है, जैसे पुंडरीक अनगार ।
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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