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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१९/२१४
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नहीं किया; वह यावत् मौन रहा । तब पुंडरीक राजा ने दूसरी बार और तीसरी बार भी कण्डरीक से इस प्रकार कहा; यावत् कण्डरीक फिर भी मौन ही रहा । तत्पश्चात् जब पुण्डरीक राजा, कण्डरीक कुमार को बहुत कहकर और समझा-बुझा कर और विज्ञप्ति करके रोकने में समर्थ न हुआ, तब इच्छा न होने पर भी उसने यह बात मान ली, यावत् उसे निष्क्रमण-अभिषेक से अभिषिक्त किया, यहाँ तक कि स्थविर मुनि को शिष्य-भिक्षा प्रदान की । तब कंडरीक प्रव्रजित हो गया, अनगार हो गया, यावत् ग्यारह अंगों का वेत्ता हो गया । तत्पश्चात् स्थविर भगवान् अन्यथा कदाचित् पुण्डरीकिणि नगरी के नलिनीवन उद्यान से बाहर निकले । निकल कर बाहर जनपद-विहार करने लगे ।
२१५] तत्पश्चात् कंडरीक अनगार के शरीर में अन्त-प्रान्त अर्थात् रूखे-सूखे आहार के कारण शैलक मुनि के समान यावत् दाह-ज्वर उत्पन्न हो गया । वे रुग्ण होकर रहने लगे। तत्पश्चात् एक बार किसी समय स्थविर भगवंत पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे और नलिनीवन उद्यान में ठहरे । तब पुंडरीक राजमहल से निकला और उसने धर्मदेशना श्रवण की । तत्पश्चात् धर्म सुनकर पुंडरीक राजा कंडरीक अनगार के पास गया । वहाँ जाकर कंडरीक मुनि की वन्दना की, नमस्कार किया । उसने कंडरीक मुनि का शरीर सब प्रकार की बाधा से युक्त और रोग से आक्रान्त देखा । यह देखकर राजा स्थविर भगवंत के पास गया । स्थविर भगवंत को वन्दन-नमस्कार किया । इस प्रकार निवेदन किया-'भगवन् ! मैं कंडरीक अनगार की यथाप्रवृत्त औषध और भेषज से चिकित्सा कराता हूँ अतः भगवन् ! आप मेरी यानशाला में पधारिये । तब स्थविर भगवान् ने पुंडरीक राजा का यह विवेचन स्वीकार करके यावत् यानशाला में रहने की आज्ञा लेकर विचरने लगे-जैसे मंडुक राजा ने शैलक कृषि की चिकित्सा करवाई, उसी प्रकार राजा पुंडरीक ने कंडरीक की करवाई । चिकित्सा हो जाने पर कंडरीक अनगार बलवान् शरीर वाले हो गये ।
तत्पश्चात् स्थविर भगवान् ने पुण्डरीक राजा से पूछा तदनन्तर वे बाहर जाकर जनपदविहार विहरने लगे । उस समय कण्डरीक अनगार उस रोग आतंक से मुक्त हो जाने पर भी उस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार में मूर्च्छित, गृद्ध, आसक्त और तल्लीन हो गए । अतएव वे पुण्डरीक राजा से पूछकर बाहर जनपदों में उग्र विहार करने में समर्थ न हो सके । शिथिलाचारी होकर वहीं रहने लगे | पुण्डरीक राजा ने इस कथा का अर्थ जाना तब वह स्नान करके और विभूषित होकर तथा अन्तःपुर के परिवार से परिवृत होकर जहाँ कण्डरीक अनगार थे वहाँ आया । उसने कण्डरीक को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की । फिर वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! आप धन्य हैं, कृतार्थ हैं, कृतपुण्य हैं और सुलक्षण वाले हैं । देवानुप्रिय ! आपको मनुष्य के जन्म और जीवन का फल सुन्दर मिला है, जो आप राज्य को और अन्तःपुर को त्याग कर और दुत्कार कर प्रव्रजित हुए हैं । और मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, यावत् राज्य में, अन्तःपुर में और मानवीय कामभोगों में मूर्छित यावत् तल्लीन हो रहा हूँ, यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ। अतएव आप धन्य हैं, यावत् आपको जन्म और जीवन का सुन्दर फल प्राप्त हुआ है ।