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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
(अध्ययन-१९ पुण्डरीक [२१३] जम्बूस्वामी प्रश्न करते हैं-'भगवन् ! यदि यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने अठारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो उन्नीसवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-जम्बू ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप में, पूर्व विदेह क्षेत्र में, सीता नामक महानदी के उत्तर किनारे नीलवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, उत्तर तरफ के सीतामुख वनखण्ड के पश्चिम में और एकशैल नामक वक्षार पर्वत से पूर्व दिशा में पुष्कलावती नामक विजय कहा गया है । उस पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी नामक राजधानी है । वह नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी यावत् साक्षात् देवलोक के समान । मनोहर, दर्शनीय, सुन्दर रूप वाली और दर्शकों को आनन्द प्रदान करने वाली है । उस पुण्डरीकिणी नगरी में ईशानकोण में नलिनीवन नामक उद्यान था । (वर्णन) (समझ लेना) ।
उस पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म राजा था । पद्मावती उसकी-पटरानी थी । महापद्म राजा के पुत्र और पद्मावती देवी के आत्मज दो कुमार थे-पुंडरीक और कंडरीक । उनके हाथ-पैर बहुत कोमल थे । उनमें पुंडरीक युवराज था । उस काल और उस समय में स्थविर मुनि का आगमन हुआ अर्थात् धर्मघोष स्थविर पांच सौ अनगारों के साथ परिवृत होकर, अनुक्रम से चलते हुए, यावत् नलिनीवन नामक उद्यान में ठहरे । महापद्म राजा स्थविर मुनि को वन्दना करने निकला | धर्मोपदेश सुनकर उसने पुंडरीक को राज्य पर स्थापित करके दीक्षा अंगीकार कर ली । अब पुंडरीक राजा हो गया और कंडरीक युवराज हो गया । महापद्म अनगार ने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । स्थविर मुनि बाहर जाकर जनपदों में विहार करने लगे । मुनि महापद्म ने बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय पालकर सिद्धि प्राप्त की ।
२१४] तत्पश्चात् एक बार किसी समय पुनः स्थविर पुंडरीकिणी राजधानी के नलिनीवन उद्यान में पधारे । पुंडरीक राजा उन्हें वन्दना करने के लिए निकला | कंडरीक भी महाजनों के मुख से स्थविर के आने की बात सुनकर महाबल कुमार की तरह गया । यावत् स्थविर की उपासना करने लगा । स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया । धर्मोपदेश सुनकर पुंडरीक श्रमणोपासक हो गया और अपने घर लौट आया । तत्पश्चात् कंडरीक युवराज खड़ा हुआ । उसने कहा-'भगवन् ! आपने जो कहा है वैसा ही है सत्य है । मैं पुंडरीक राजा से अनुमति ले लूँ, तत्पश्चात् यावत् दीक्षा ग्रहण करूँगा ।' तब स्थविर ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो ।' तत्पश्चात् कंडरीक ने यावत् स्थविर मुनि को वन्दन किया। उनके पास से निकल कर चार घंटों वाले घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हुआ, यावत् राजभवन में आकर उतरा । पुंडरीक राजा के पास गया; वहाँ जाकर हाथ जोड़ कर यावत् पुंडरीक से कहा'देवानुप्रिय ! मैंने स्थविर मुनि से धर्म सुना है और वह धर्म मुझे रुचा है । अतएव हे देवानुप्रिय ! मैं यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करने की इच्छा करता हूँ ।'
तब पुडंरीक राजा ने कंडरीक युवराज से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! तुम इस समय मुंडित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण मत करो । मैं तुम्हें महान्-महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त करना चाहता हूँ ।' तब कंडरीक ने पुंडरीक राजा के इस अर्थ का आदर नहीं किया स्वीकार