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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
थीं । वहाँ आकर उनमें से कोई-कोई अश्व 'ये शब्द, स्पर्श, रस रूप और गंध अपूर्व हैं, ऐसा विचार कर उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूर्छित, गृद्ध, आसक्त न होकर उन उत्कृष्ट शब्द यावत् गंध से दूर चले गये । वे अश्व वहाँ जाकर बहुत गोचर प्राप्त करके तथा प्रचुर घास-पानी पीकर निर्भय हुए, उद्वेग रहित हुए और सुखे-सुखे विचरने लगे । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु या साध्वी शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में आसक्त नहीं होता, वह इस लोक में बहुत साधुओं, साध्वियों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और इस चातुर्गतिक संसार-कान्तार को पार कर जाता है ।
[१८६] उन घोड़ों में से कितनेक घोड़े जहाँ वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध थे, वहाँ पहुँचे । वे उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूर्छित हुए, अति आसक्त हो गए और उनका सेवन करने में प्रवृत्त हो गए । उस उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप
और गंध का सेवन करने वाले वे अश्व कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बहुत से कूट पाशों से गले में यावत् पैरों में बाँधे गए । उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उन अश्वों को पकड़ लिया । वे नौकाओं द्वारा पोतवहन में ले आये । लाकर पोतवहन को तृण, काष्ठ आदि आवश्यक पदार्थों से भर लिया । वे सांयात्रिक नौकावणिक् दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन द्वारा जहाँ गंभीर पातपट्टन था, वहाँ आये । पोतवहन का लंगर डाला । उन घोड़ों को उतारा । हस्तिशीर्ष नगर था और जहाँ कनककेतु राजा था, वहाँ पहुँचे । दोनों हाथ जोड़कर राजा का अभिनन्दन करके वे अश्व उपस्थित किये । राजा कनककेतु ने उन सांयात्रिक वणिकों का शुल्क माफ कर दिया। उनका सत्कार-सम्मान किया और उन्हें विदा किया ।
तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने कालिक-द्वीप भेजे हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुला कर उनका भी सत्कार-सम्मान किया और फिर उन्हें विदा कर दिया । तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने अश्वमर्दकों को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम मेरे अश्वों को विनीत करो-।' तब अश्वमर्दकों ने 'बहुत अच्छा' कहकर राजा का आदेश स्वीकार किया । उन्होंने उन अश्वों को मुख बाँधकर, कान बाँधकर, नाक बाँधकर, झौंरा बाँधकर, खुर बाँधकर, कटक बाँधकर, चौकड़ी चढ़ाकर, तोबरा चढ़ाकर, पटतानक लगा कर, खस्सी करके, वेलाप्रहार करके, बेंतों का प्रहार करके, लताओं का प्रहार करके, चाबुकों का प्रहार करके तथा चमड़े के कोड़ों का प्रहार करके विनीत किया-1 विनीत करके वे राजा कनककेतु के पास ले आये ।
तत्पश्चात् कनककेतु ने उन अश्वमर्दकों का सत्कार कया, सम्मान किया । उन्हें विदा किया । उसके बाद वे अश्व-मुखबंधन से यावत् चमड़े के चाबुकों के प्रहार से बहुत शारीरिक
और मानसिक दुःखों को प्राप्त हुए । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो निग्रंथ या निग्रंथों दीक्षित होकर प्रिय शब्द स्पर्श रस रूप और गंध में गृद्ध होता है, मुग्ध होता है और आसक्त होता है, वह इसी लोक में बहुत श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों तथा श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र होता है, चातुर्गतिक संसारअटवी में पुनः पुनः भ्रमण करता है ।
[१८७] श्रुतिसुखद स्वरघोलना के प्रकार वाले, मधुर वीणा, तलताल और बाँसुरी के श्रेष्ठ और मनोहर वाद्यों के शब्दों में अनुरक्त होने और श्रोत्रेन्द्रिय के वशवर्ती बने हुए प्राणी आनन्द मानते हैं ।
[१८८] किन्तु श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष होता है, जैसे पारधि के पिंजरे