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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१६/१७७
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बोले-'अरे पद्मनाभ ! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले ! क्या तू नहीं जानता कि तूने मेरे समान पुरुष कृष्ण वासुदेव का अनिष्ट किया है ? इस प्रकार कहकर वह क्रुद्ध हुए, यावत् पद्मनाभ को देश-निर्वासन की आज्ञा दे दी । पद्मनाभ के पुत्र को अमरकंका राजधानी में महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया । यावत् कपिल वासुदेव वापिस चले गये ।
[१७८] इधर कृष्ण वासुदेव लवणसमुद्र के मध्य भाग से जाते हए गंगा नदी के पास आये । तब उन्होंने पांच पाण्डवों से कहा-'देवानुप्रियो ! तुम लोग जाओ । जब तक गंगा महानदी को उतरो, तब तक मैं लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव से मिल लेता हूँ ।' तब वे पांचों पाण्डव, कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आये । आकर एक नौका की खोज की । खोज कर उस नौका से गंगा महानदी उतरे । परस्पर इस प्रकार कहने लगे-'देवानुप्रिय ! कृष्ण वासुदेव गंगा महानदी को अपनी भुजाओं से पार करने में समर्थ हैं अथवा नहीं हैं ? ऐसा कह कर उन्होंने वह नौका छिपा दी । छिपा कर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करते हुए स्थित रहे । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव लवणाधिपति सुस्थित देव से मिले । मिलकर जहाँ गंगा महानदी थी वहाँ आये । उन्होंने सब तरफ नौका की खोज की, पर खोज करने पर भी नौका दिखाई नहीं दी । तब उन्होंने अपनी एक भुजा से अश्व और सारथी सहित स्थ ग्रहण किया और दूसरी भुजा से बासठ योजन और आधा योजन अर्थात् साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी को पार करने के लिए उद्यत हुए । कृष्ण वासुदेव जब गंगा महानदी के बीचोंबीच पहुँचे तो थक गये, नौका की इच्छा करने लगे और बहुत खदेयुक्त हो गये । उन्हें पसीना आ गया ।
उस समय कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार का विचार आया कि-'अहा, पांच पाण्डव बड़े बलवान् हैं, जिन्होंने साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी अपने बाहुओं से पार करली ! पांच पाडण्वों ने इच्छा करके पद्मनाभ राजा को पराजित नहीं किया ।' तब गंगा देवी ने कृष्ण वासुदेव का ऐसा अध्यवसाय यावत् मनोगत संकल्प जानकर थाह दे दी । उस समय कृष्ण वासुदेव ने थोड़ी देर विश्राम किया । विश्राम लेने के बाद साढ़े बासठ योजन विस्तृत गंगा महानदी पार की । पार करके पांच पाण्डवों के पास पहुँचे । वहाँ पहुँच कर पांच पाण्डवों से बोले-'अहो देवानुप्रियो ! तुम लोग महाबलवान् हो, क्योंकि तुमने साढ़े बासठ योजन विस्तार वाली गंगा महानदी अपने बाहुबल से पार की है । तब तो तुम लोगों ने चाह कर ही पद्मनाभ को पराजित नहीं किया ।' तब कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर पांच पाण्डवों ने कृष्ण वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय ! आपके द्वारा विसर्जित होकर हम लोग जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आये । वहाँ आकर हमने नौका की खोज की । उस नौका से पार पहुँच कर आपके बल की परीक्षा करने के लिए हमने नौका छिपा दी । फिर आपकी प्रतीक्षा करते हुए हम यहाँ ठहरे हैं।'
पांच पाण्डवों का यह अर्थ सुनकर और समझ कर कृष्ण वासुदेव कुपित हो उठे उनकी तीन बल वाली भृकुटि ललाट पर चढ़ गई । वह बोले-'ओह, जब मैंने दो लाख योजन विस्तीर्ण लवणसमुद्र को पार करके पद्मनाभ को हत और मथित करके, यावत् पराजित करके अमरकंका राजधानी को तहस-नहस किया और अपने हाथों से द्रौपदी लाकर तुम्हें सौंपी, तब तुम्हें मेरा माहात्म्य नहीं मालूम हुआ ! अब तुम मेरा माहात्म्य जान लोगे ! इस प्रकार कहकर