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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
पाँचजन्य शंख का शब्द सुना । तब कपिल वासुदेव के चित्त में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ–'क्या धातकीखण्ड द्वीप के भारतवर्ष में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है ? जिसके शंख का शब्द ऐसा फैल रहा है, जैसे मेरे मुख की वायु से पूरित हुआ हो
_ 'कपिल वासुदेव' इस प्रकार से सम्बोधित करके मुनिसुव्रत अरिहन्त ने कपिल वासुदेव से कहा-मेरे धर्म श्रवण करते हुए तुम्हें यह विचार आया है कि क्या इस भरतक्षेत्र में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है, जिसके शंख का यह शब्द फैल रहा है आदि; हे कपिल वासुदेव ! मेरा यह अर्थ सत्य है ? 'हाँ सत्य है ।' मुनिसुव्रत अरिहंत ने पुनः कहा-'कपिल वासुदेव ! ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा नहीं कि एक क्षेत्र में एक ही युग में और एक ही समय में दो तीर्थंकर, दो चक्रवर्ती, दो बलदेव अथवा दो वासुदेव उत्पन्न हुए हों, उत्पन्न होते हों या उत्पन्न होंगे । हे वासुदेव ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से, भरतक्षेत्र से, हस्तिनापुर नगर से पाण्डु राजा की पुत्र-वधु और पाँच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी को तुम्हारे पद्मनाभ राजा का पहले का साथी देव हरण करके ले आया था । तब कृष्ण वासुदेव पाँच पाण्डवों समेत आप स्वयं छठे द्रौपदी देवी को वापिस छीनने के लिए शीघ्र आये हैं । वह पद्मनाभ राजा के साथ संग्राम कर रहे हैं । अतः कृष्ण वासुदेव के शंख का यह शब्द है, जो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे मुख की वायु से पूरित किया गया हो और जो इष्ट है, कान्त है और यहाँ तुम्हें सुनाई दिया है ।
तत्पश्चात् कपिल वासुदेव ने मुनिसुव्रत तीर्थंकर को वन्दना को, नमस्कार किया । 'भगवन् ! मैं जाऊँ और पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव को देखू उनके दर्शन करूँ ।' तब मुनिसुव्रत अरिहन्त ने कपिल वासुदेव से कहा-'देवानुप्रिय ! ऐसा हुआ नहीं, होता नहीं और होगा नहीं कि एक तीर्थंकर दूसरे तीर्थंकर को देखें, एक चक्रवर्ती दूसरे चक्रवर्ती को देखें, एक बलदेव दूसरे बलदेव को देखें और एक वासुदेव दूसरे वासुदेव को देखें । तब भी तुम लवणसमुद्र के मध्य भाग में होकर जाते हुए कृष्ण वासुदेव के श्वेत एवं पीत ध्वजा के अग्रभाग को देख सकोगे ।' तत्पश्चात् कपिल वासुदेव ने मुनिसुव्रत तीर्थंकर को वन्दन और नमस्कार किया । वह हाथी के स्कंध पर आरूढ़ हुए । जल्दी-जल्दी जहाँ वेलाकूल था, वहाँ आये । वहाँ आकर लवणसमुद्र के मध्य में होकर जाते हुए कृष्ण वासुदेव की श्वेत-पीत ध्वजा का अग्रभाग देखा । 'यह मेरे समान पुरुष हैं, यह पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव हैं, लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हैं । ऐसा कहकर कपिल वासुदेव ने अपना पाञ्चजन्य शंख हाथ में लिया और उसे अपनी मुख की वायु से पूरित किया-फूंका ।।
तब कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शंख का शब्द सुना । उन्होंने भी अपने पाञ्चजन्य को यावत् मुख की वायु से पूरित किया । उस समय दोनों वासुदेवों ने शंख की समाचारी की । तत्पश्चात् कपिल वासुदेव जहाँ अमरकंका राजधानी थी, वहाँ आए । आकर उन्होंने देखा कि अमरकंका के तोरण आदि टूट-फूट गये हैं । यह देखकर उन्होंने पद्मनाभ से पूछा-'देवानुप्रिय ! अमरकंका के तोरण आदि भग्न होकर क्यों पड़ गए हैं ।' तब पद्मनाभ ने कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से, भारतवर्ष से, यहाँ एकदम आकर कृष्ण वासुदेव ने, आपका पराभव करके, आपका अपमान करके, अमरकंका को यावत् गिरा दिया है । तत्पश्चात् कपिल वासुदेव, पद्मनाभ से उत्तर सुनकर पद्मनाम से