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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
'क्योंकि यह बालिका द्रुपदी राजा की पुत्री है और चुलनी रानी की आत्मजा है, अतः हमारी इस बालिका का नाम 'द्रौपदी' हो । तब उसका गुणनिष्पन्न नाम 'द्रौपदी' रक्खा । तत्पश्चात पाँच धायों द्वारा ग्रहण की हुई वह द्रौपदी दारिका पर्वत की गुफा में स्थित वायु आदि के व्याघात से रहित चम्पकलता के समान सुखपूर्वक बढ़ने लगी । वह श्रेष्ठ राजकन्या बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् उत्कृष्ट शरीर वाली भी हो गई ।
राजवरकन्या द्रौपदी को एक बार अन्तःपुर की रानियों ने स्नान कराया यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित किया । फिर द्रुपद राजा के चरणों की वन्दना करने के लिए उसके पास भेजा । तब श्रेष्ठ राजकुमारी द्रौपदी द्रुपद राजा के पास गई । उसने द्रुपद राजा के चरणों का स्पर्श किया । तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने द्रौपदी दारिका को अपनी गोद में बिठाया । फिर राजवरकन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य को देखकर उसे विस्मय हुआ । उसने राजवरकन्या द्रौपदी से कहा-'हे पुत्री ! मैं स्वयं किसी राजा अथवा युवराज की भार्या के रूप में तुझे दूंगा तो कौन जाने वहाँ तू सुखी हो या दुःखी ? मुझे जिन्दगी भर हृदय में दाह होगा। अतएव हे पुत्री ! मैं आज से तेरा स्वयंवर रचता हूँ । अतएव तू अपनी इच्छा से जिस किसी राजा या युवराज का वरण करेगी, वही तेरा भर्तार होगा ।' इस प्रकार कहकर इष्ट, प्रिय और मनोज्ञ वाणी से द्रौपदी को आश्वासन दिया । आश्वासन देकर विदा कर दिया ।
[१६९]तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने दूत बुलवा कर उससे कहा-देवानुप्रिय ! तुम द्वारवती नगरी जाओ । वहाँ तुम कृष्ण वासुदेव को, समुद्रविजय आदि दस दसारों को, बलदेव आदि पाँच महावीरों को, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं को, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन कोटि कुमारों को, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्तों को, वीरसेन आदि इक्कीस हजार वीर पुरुषों को, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान वर्ग को तथा अन्य बहुत-से राजाओं, युवराजों, तलवर, माङविक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह प्रभृति को दोनों हाथ जोड़कर, दसों नख मिला कर मस्तक पर आवर्तन करके, अंजलि करके और 'जय-विजय' शब्द कह कर बधाना- । अभिनन्दन करके इस प्रकार कहना-'हे देवानुप्रियो ! काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा और राजकुमार धृष्टद्युम्न की भगिनी श्रेष्ठ राजकुमारी द्रौपदी का स्वयंवर होने वाला है । अतएव हे देवानुप्रियो ! आप सब द्रुपद राजा पर अनुग्रह करते हुए, विलम्ब किये बिना कांपिल्यपुर नगर में पधारना ।'
तत्पश्चात् दूत ने दोनों हाथ जोड़कर यावत् मस्तक पर अंजलि करके द्रुपद राजा का यह अर्थ विनय के साथ स्वीकार किया । अपने घर आकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटाओं वाला अश्वस्थ जीत कर उपस्थित करो ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् स्थ उपस्थित किया । तत्पश्चात् स्नान किये हुए और अलंकारों से विभूषित शरीर वाले उस दूत के चार घंटाओं वाले अश्वरथ पर आरोहण किया । आरोहण करके तैयार हुए अस्त्र-शस्त्रधारी बहुत-से पुरुषों के साथ कांपिल्यपुर नगर के मध्य भाग से होकर निकला। पंचाल देश के मध्य भाग में होकर देश की सीमा पर आया । फिर सुराष्ट्र जनपद के बीच में होकर जिधर द्वारवती नगरी थी, उधर चला । द्वारवती नगरी के मध्य में प्रवेश करके जहाँ कृष्ण वासुदेव की बाहरी सभी थी, वहाँ आया । चार घंटाओं वाले अश्वस्थ को रोका । फिर मनुष्यों के समूह से परिवृत होकर पैदल चलता हुआ कृष्ण वासुदेव के पास पहुँचा । कृष्ण