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ज्ञाताधर्मकथा - १/-/१६/१६७
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[१६७] तत्पश्चात् वह सुकुमालिका आर्या शरीरबकुश हो गई, अर्थात् शरीर को साफसुथरा - सुशोभन रखने में आसक्त हो गई । वह बार-बार हाथ धोती, पैर धोती, मस्तक धोती, मुँह धोती, स्तनान्तर धोती, बगलें धोती तथा गुप्त अंग धोती । जिस स्थान पर खड़ी होती या कायोत्सर्ग करती, सोती, स्वाध्याय करती, वहाँ भी पहले ही जमीन पर जल छिड़कती थी और फिर खड़ी होती, कायोत्सर्ग करती, सोती या स्वाध्याय करती थी । तब उन गोपालिका आर्या ने सुकुमालिका आर्या से कहा- हम निर्ग्रन्थ साध्वियाँ हैं, ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् ब्रह्मचारिणी हैं । हमें शरीरबकुश होना नहीं कल्पता, किन्तु हे आर्ये! तुम शरीरवकुश हो गई हो, बार-बार हाथ धोती हो, यावत् फिर स्वाध्याय आदि करती हो । अतएव तुम बकुशचारित्र रूप स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित अंगीकार करो ।'
तब सुकुमालिका आर्या ने गोपालिका आर्या के इस अर्थ का आदर नहीं किया, उसे अंगीकार नहीं किया । वरन् अनादर करती हुई और अस्वीकार करती हुई उसी प्रकार रहने लगी। तत्पश्चात् दूसरी आर्याएँ सुकुमालिका आर्या की बार-बार अवहेलना करने लगीं, यावत् अनादर करने लगीं और बार-बार इस अनाचार के लिए उसे रोकने लगी । निर्ग्रन्थ श्रमणियों द्वारा अवहेलना की गई और रोकी गई उस सुकुमालिका के मन में इस प्रकार का विचार यावस् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - 'जब मैं गृहस्थवास में वसती थी, तब मैं स्वाधीन थी । मैं मंडित होकर दीक्षित हुई तब मैं पराधीन हो गई । पहले ये श्रमणियाँ मेरा आदर करती थीं किन्तु अब आदर नहीं करती हैं । अतएव कल प्रभात होने पर गोपालिका के पास से निकलकर, अलग उपाश्रय में जा करके रहना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा,' उसने ऐसा विचार करके दूसरे दिन प्रभात होने पर गोपालिका आर्या के पास से निकलकर अलग उपाश्रय में जाकर रहने लगी ।
तत्पश्चात् कोई मना करने वाला न होने से एवं रोकने वाला न होने से सुकुमालिका स्वच्छंदबुद्धि होकर बार-बार हाथ धोने लगी यावत् जल छिड़ककर कायोत्सर्ग आदि करने लगी । वह पार्श्वस्थ हो गई । पार्श्वस्थ की तरह विहार करने - रहने लगी । वह अवसन्न हो गई और आलस्यमय विहार वाली हो गई । कुशीला कुशीलों के समान व्यवहार करने वाली हो गई । संसक्ता और संसक्त-विहारिणी हो गई । इस प्रकार उसने बहुत वर्षों तक साध्वी - पर्याय का पालन किया । अन्त में अर्ध मास की संलेखना करके, अपने अनुचित आचरण की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल मास में काल करके, ईशान कल्प में, किसी विमान में देवगणिका के रूप में उत्पन्न हुई । वहाँ सुकुमालिका देवी की भी नौ पल्योपम की स्थिति हुई । [१६८] उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरतक्षेत्र में पांचाल देश में काम्पिल्यपुर नामक नगर था । (वर्णन ) वहाँ द्रुपद राजा था । ( वर्णन ) द्रुपद राजा की चुलनी नामक पटरानी थी और धृष्टद्युम्न नामक कुमार युवराज था । सुकुमालिका देवी उस देवलोक से आयु भव और स्थिति को समाप्त करके यावत् देवीशरीर का त्याग करके इसी जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, पंचाल जनपद में, काम्पिल्यपुर नगर में द्रुपद राजा की चुलनी रानी की कूंख में लड़की के रूप में उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् चुलनी देवी ने नौ मास पूर्ण होने पर यावत् पुत्री को जन्म दिया ।
तत्पश्चात् बारह दिन व्यतीत हो जाने पर उस बालिका का ऐसा नाम रक्खा गया