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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
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उनमें से किन्हीं - किन्हीं पुरुषों ने धन्य - सार्थवाह की बात पर श्रद्धा की, प्रतीति की एवं रुचि की । वे धन्य - सार्थवाह के कथन पर श्रद्धा करते हुए, उन नन्दीफलों का दूर ही दूर से त्याग करते हुए, दूसरे वृक्षों के मूल आदि का सेवन करते थे और उन्हीं की छाया में विश्राम थे । उन्हें तात्कालिक भद्र तो प्राप्त न हुआ, किन्तु उसके पश्चात् ज्यों-ज्यों उनका परिणमन होता चला त्यों-त्यों वे बार-बार सुख रूप ही परिणत होते चले गए । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणों ! जो निर्ग्रन्थी यावत् पाँच इन्द्रियों के कामभोगों में आसक्त नहीं होता और अनुरक्त नहीं होता, वह इसी भव में बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और परलोक में भी दुःख नहीं पाता हैं, जैसे- हाथ, कान, नाक आदि का छेदन, हृदय एवं वृषभों का उत्पाटन, फांसी आदि । उसे अनादि अनन्त संसार - अटवी में चतुरशीति योनियों में भ्रमण नहीं करना पड़ता । वह अनुक्रम से संसार कान्तार को पार कर जाता है - सिद्धि प्राप्त कर लेता हैं ।
उनमें से जिन कितनेक पुरुषों ने धन्य - सार्थवाह की इस बात पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की, वे धन्य - सार्थवाह की बात पर श्रद्धा न करते हुए जहाँ नदीफल वृक्ष थे, वहाँ गये । जाकर उन्होंने उन नन्दीफल वृक्षों के मूल आदि का भक्षण किया और उनकी छाया में विश्राम किया । उन्हें तात्कालिक सुख तो प्राप्त हुआ, किन्तु बाद में उनका परिणमन होने पर उन्हें जीवन से मुक्त होना पड़ा "। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर पाँच इन्द्रियों के विषयभोगों में आसक्त होता हैं, वह उन पुरुषों की तरह यावत् हस्तच्छेदन, कर्णच्छेदन, हृदयोत्पाटन आदि पूर्वोक्त दुःखों का भागी होता है और चतुर्गतिरूप संसार में पुनः पुनः परिभ्रमण करता है ।
इसके पश्चात् धन्य-सार्थवाह ने गाड़ी - गाड़े जुतवाए । अहिच्छत्रा नगरी पहुँचा । अहिच्छत्रा नगरी के बाहर प्रधान उद्यान में पड़ाव डाला और गाड़ी गाड़े खुलवा दिए । फिर धन्य - सार्थवाह ने महामूल्यवान् और राजा के याग्य उपहार लिया और बहुत पुरुषों के साथ, उनसे परिवृत होकर अहिच्छत्रा नगरी में मध्यभाग में होकर प्रवेश किया । प्रवेश करके कनककेतु राजा के पास गया । वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके राजा का अभिनन्दन किया । अभिनन्दन करने के पश्चात् वह बहुमूल्य उपहार उसके समीप रख दिया । उपहार प्राप्त करके राजा कनककेतु हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसने धन्य - सार्थवाह के उस मूल्यवान् उपहार को स्वीकार किया । धन्य - सार्थवाह का सत्कार-सम्मान किया । माफ कर दिया और उसे विदा किया । फिर धन्य - सार्थवाह ने अपने भाण्ड का विनिमय किया । अपने माल के बदले में दूसरा माल लिया । तत्पश्चात् सुखपूर्वक लौटकर चम्पानगरी में आ पहुँचा । आकर अपने मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से मिला और मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोगने योग्य भोग भोगता हुआ रहने लगा ।
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उस काल और उस समय में स्थविर भगवन्त का आगमन हुआ । धन्य - सार्थवाह उन्हें वन्दना करने के लिए निकला । धर्मदेशना सुनकर और ज्येष्ठ पुत्र को अपने कुटुम्ब में स्थापित करके स्वयं दीक्षित हो गया । सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करके और बहुत वर्षों तक संयम का पालन करके, एक मास की संलेखना करके, साठ भक्त का अनशन करके