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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
प्रमदवन उद्यान था और जहाँ तेतलिपुत्र अनगार थे, वहाँ पहुँचा । वन्दन-नमस्कार किया । इस बात के लिए विनय के साथ पुनः पुनः क्षमायाचना की । न अधिक दूर और न अधिक समीप-यथायोग्य स्थान पर बैठ कर धर्म श्रवण की अभिलाषा करता हुआष हाथ जोड़कर नमस्कार करता हुआ सम्मुख होकर विनय के साथ वह उपासना करने लगा |
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अनगार ने कनकध्वज राजा को और उपस्थित महती परिषद् को धर्म का उपदेश दिया ।उस समय कनकध्वज राजा ने तेतलिपत्र केवली से धर्मोपदेश श्रवणकर और उसे हृदय में धारण करके पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया । श्रावकधर्म अंगीकार करके वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र केवली बहुत वर्षों तक केवली-अवस्था में रहकर यावत् सिद्ध हुए । 'हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने चौदहवें ज्ञातअध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ कहा है | जैसा मैंने सुना वैसा ही कहा है । अध्ययन-१४-का मुनि दीपरत्नसागर कृत हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-१५-'नंदिफल') [१५७] “भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने चौदहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा हैं तो पन्द्रहवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?' उस काल और उशसमय में चम्पा नामक नगरी थी । उसके बाहर पूर्णभद्र नामक चैत्य था। जितशत्रु नामक राजा था । धन्य नामक सार्थवाह था, जो सम्पन्न था यावत् किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था । उस चम्पा नगरी से उत्तप-पूर्व दिशा में अहिच्छत्रा नामक नगरी थी । वह धन-धान्य आदि से परिपूर्ण थी । उस अहिच्छत्रा नगरी में कनककेतु नामक राजा था । वह महाहिमवन्त पर्वत के समान आदि विशेषणों से युक्त था ।
किसी समय धन्य-सार्थवाह के मन में मध्य रात्रि के समय इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-'विपुल माल लेकर मुझे अहिच्छत्रा नगरी में व्यापार करने के लिए जाना श्रेयस्कर है ।' ऐसा विचार करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य माल को ग्रहण किया । ग्रहण करके गाड़ी-गाड़े तैयार किये । तैयार करके गाड़ीगाड़े भरे । कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । उनसे इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ। चम्पा के श्रृंगाटक यावत्सब मार्गों में, गली-गली में घोषणा कर दो-'हे देवानुप्रियो ! धन्यसार्थवाह विपुल माल भर कर अहिच्छत्रा नगरी में वाणिज्य के निमित्त जाना चाहता हैं । अतएव हे देवानुप्रियो ! जो भी चरक चीरिक चर्मखंडिक भिक्षांड पांडुरंक गोतम गोव्रती गृहिधर्मा गृहस्थधर्मका चिन्तन करनेवाला अविरुद्ध विरुद्ध वृद्ध-तापस श्रावक रक्तपट निर्ग्रन्थ आदि व्रतवान् या गृहस्थ-जो भी कोई-धन्य-सार्थवाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी में जाना चाहे, उसे धन्य सार्थवाह अपने साथ ले जायगा । जिसके पास छतरी न होगी उसे छतरी दिलाएगा। वह बिना जूतेवाले को जूते दिलाएगा, जिसके पास कमंडलु नहीं होगा उसे कमंडलु दिलाएगा, जिसके पास पथ्यदन न होगा उसे पथ्यदन दिलाएगा, जिसके पास प्रक्षेप न होगा, उसे प्रक्षेप दिलाएगा, जो पड़ जाएगा, भग्न हो जायगा या रुग्ण हो जायगा, उसकी सहायता करेगा और