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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१४/१५४ १८३ होकर हथेली पर मुख रहकर आर्तध्यान करने लगा । तब पोट्टिल दे ने पोट्टिला के रूप की विक्रिया की । विक्रिया करके तेतलिपुत्र से न बहुत दूर और न बहुत पास स्थित होकर इस प्रकार कहा- 'हे तेतलिपुत्र ! आगे प्रपात है और पीछे हाथी का भय है । दोनों बगलों में ऐसा अंधकार है कि आँखों से दिखाई नहीं देता । मध्य भाग मां वाणों की वर्षा हो रही है । गाँव में आग लगी है और वन धधक रहा है । वन मे आग लगी है और गाँव धधक रहा है, तो आयुष्मन् तेतलिपुत्र ! हम कहाँ जाएँ ? कहाँ शरण लें ? अभिप्राय यह है कि जिसके चारों ओर घोर भय का वायुमण्डल हो और जिसे कहीं भी क्षेम-कुशल न दिखाई दे, उसे क्या करन चाहिए ? उसके लिए हितकर मार्ग क्या है ? तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिल देव से इस प्रकार कहा-अहो ! इस प्रखार सर्वत्र भयभीत पुरुष के लिए दीक्षा ही शरणभूत है । जैसे उत्कंठित हुए पुरुष के लिए स्वदेश शरणभूत है, भूखे को अन्न, प्यासे को पानी, बीमार को औषध, मायावी को गुप्तता, अभियुक्त को विश्वास उपजाना, थके-मांदे को बाहन पर चढ़ कर गमन कराना, तिरने के इच्छुक को जहाज और शत्रु का पराभव करनेवाले को सहायकृत्य शरणभूत है । क्षमाशील, इन्द्रियदमन करनेवाले, जितेन्द्रिय को इनमे से कोई भय नहीं होता । तत्पश्चात् पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र अमात्य से इस प्रकार कहा-'हे तेतुलिपुत्र ! तुम ठीक कहते हो । मगर इस अर्थ को तुम भलीभाँति जानो, दीक्षा ग्रहण करो । इस प्रकार कहकर देव ने दूसरी बार और तीसरी बार भी ऐसा ही कहा ? कहकर देव जिस दिशा से प्रकट हुआ था, सी दिशा मे वापिस लौट गया । [१५५] तत्पश्चात् तेतलिपुत्र को शुभ परिणाम उत्पन्न होने से, जातिस्मरण ज्ञान प्राप्ति हुई । तब तेतलिपुत्र के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-निश्चय ही मैं इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, महाविदेह क्षेत्र में पुश्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म नामक राजा था । फिर मैंने स्थविर मुनि के निकट मुण्डित होकर यावत् चौदह पूर्वो का अध्ययन करके, बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय का पालन करके, अन्त में एस मास की संलेखना करके, महाशुक्र कल्प में देव रूप से जन्म लिया । तत्पश्चात् आयु का क्षय होने पर मैं उस देवलोक से यहाँ तेतुलिपुर में तेतलिप अमात्य की भद्रा नामक भाया के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । अतः मेरे लिए, पहले स्वीकार किये हुए महाव्रतों को स्वयं ही अंगीकार करके विचरना श्रेयस्कर है । विचार करके स्वयं ही महाव्रतों को अंगीकार किया । प्रमदवन उद्यान आकर श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीच, पृथ्वीलिपट्टक पर सुखपूर्वक बैठे हुए और विचारणा करते हुए उसे पहले अध्ययन किये हुए चौदह पूर्व स्वयं ही स्मरण हो आए । तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अनगार ने शुभ परिणाम से यावत् तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से, कर्मरज का नाश करने वाले अपूर्तकरण में प्रवेश करके उत्तम केवलज्ञान तथा केवल दर्शन प्राप्त किया । [१५६] उस समय तेतलिपुर नगर के निकट रहते हुए वाण-व्यन्तर देवों और देवियों ने देवदुंदुभियाँ बजाइँ । पाँच वर्ण के फूलों की वर्षा की और दिव्य गीत-गन्धर्व का निनाद किया । तत्पश्चात् कनकध्वज राजा इस कथा का अर्थ जानता हुआ बोला-निस्सन्देह मेरे द्वारा अपमानित होकर तेतलिपुत्र ने मुण्डित होकर दीक्षा अंगीकार की है । अतएव मैं जाऊँ और तेतलिपुत्र अनगार को वन्दना करूँ, नमस्कार करूँ, और इस बात के लिए-विनयपूर्वक बारबार क्षमायाचना करूँ ।' विचार करके स्नान किया । फिर चतुरंगिणी सेना के साथ जहाँ
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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