________________
१६४
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
चन्द्रमा, प्रतिपदा के चन्द्रमा की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है यावत् मण्डल से भी हीन होता है । तत्पश्चात् तृतीया का चन्द्र द्वितीया के चन्द्र की अपेक्षा भी वर्ण से हीन यावत् मंडल से भी हीन होता है । इस प्रकार यावत् अमावस्या का चन्द्र, चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण आदि से सर्वथा नष्ट होता है, यावत् मण्डल से नष्ट होता है, इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर शान्ति-क्षमा से हीन होता है, इसी प्रकार मुक्ति से, आर्जव से, मार्दव से, लाघव से, सत्य से, तप से, त्याग से, आकिंचन्य से और ब्रह्मचर्य से, हीन होता हैं, वह उसके पश्चात् क्षान्ति से हीन और अधिक हीन, यावत् ब्रह्मचर्य से भी हीन अतिहीन होता जाता है । इस प्रकार इसी क्रम से हीन-हीनतर होते हुए उसके क्षमा आदि गुण, यावत् उसका ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है । __जैसे शुक्लपक्ष की प्रतिपक्ष का चन्द्र अमावस्या के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिक होता है । तदनन्तर द्वितीय का चन्द्र प्रतिपक्ष के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण यावत् मंडल से अधिकतर होता है और इसी क्रम से वृद्धिगत होता हुआ पूर्णिमा का चन्द्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा परिपूर्ण वर्ण यावत् परिपूर्ण मंडल वाला होता है । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! जो हमारा साधु या साध्वी यावत् आचार्य-उपाध्याय के निकट दीक्षित होकर क्षमा से अधिक वृद्धि प्राप्त होता है, यावत् ब्रह्मचर्य से अधिक होता हैं, तत्पश्चात् वह क्षमा से यावत् ब्रह्मचर्य से और अधिक-अधिक होता जाता है । निश्चय ही इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते यावत् वह क्षमा आदि एवं ब्रह्मचर्य से परिपूर्ण हो जाता है । इस प्रकार जीव वृद्धि को और हानि को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दसवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा हैं । वैसा ही मैं कहता हूँ । अध्ययन-१०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-११-'दावद्रव') [१४२] 'भगवन् ! ग्यारवें अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक राजा था । उस के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में गुणशील नामक चैत्य था । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रम से विचरते हुए, यावत् गुणशील नामक उद्यान में समवसृत हुआ । वन्दना करने के लिए राजा श्रेणिक और जनसमूह निकला । भगवान् ने धर्म का उपदेश किया। जनसमूह वापिस लौट गया। तत्पश्चात गौतम स्वामीने श्रमण भगवान महावीर से कहा-'भगवन् ! जीव किस प्रकार आराधक और किस प्रकार विराधक है ?'
हे गौतम ! जैसे एक समुद्र के किनारे दावद्रव नामक वृक्ष कहे गये हैं । वे कृष्ण वर्ण वाले यावत् निकुरंब रूप हैं । पत्तों वाले, फलों वाले, अपनी हरियाली के कारण मनोहर और श्री से अत्यन्त शोभित-शोभित होते हुए स्थित हैं । जब द्वीप सम्बन्धी ईषत् पुरोवात पथ्यवात, मन्द वात और महावात चलती है, तब बहुत-से दावद्रव नामक वृक्ष पत्र आदि से युक्त होकर खड़े रहते हैं । उनमें से कोई-कोई दावद्रव वृक्ष जीर्ण जैसे हो जाते हैं, झोड़ हो जाते हैं, अतएव वे खिले हुए पीले पत्तों, पुष्पों और फलोंवाले हो जाते हैं और सूखे पेड़ की तरह मुरझाते हुए खड़े रहते हैं । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु या साध्वी यावत्