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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/९/१३९
माता-पिता थे वहाँ पहुँचा । उसने रोते-रोते और, विलाप करते-करते जिनरक्षित की मृत्यु का समाचार सुनाया । तत्पश्चात् जिनपालित ने और उसके माता-पिता ने मित्र, ज्ञाति, स्वजन यावत् परिवार के साथ रोते-रोते बहुत से लौकिक मृतककृत्य करके वे कुछ समय बाद शोक रहित हुए । तत्पश्चात् एक बार किसी समय सुखासन पर बैठे जिनपालित से उसके मातापिता ने इस प्रकार प्रश्न किया- 'हे पुत्र ! जिनरक्षित किस प्रकार कालधर्म को प्राप्त हुआ ?' तब निपालित ने माता-पिता से अपना लवणसमुद्र में प्रवेश करना, तूफानी हवा का उठना, पोतवहन का नष्ट होना, रत्नद्वीप में जाना, देवी के घर जाना, वहाँ के भोगों का वैभव, रत्नद्वीप की देवी के वधस्थान, शूली पर चढ़े पुरुष, शैलक यक्ष की पीठ पर आरूढ़ होना, रत्नद्वीप की देवी द्वारा उपसर्ग, जिनरक्षित का मरण, लवणसमुद्र पार करना, चम्पा में आना और शैलक यक्ष द्वारा छुट्टी लेना, आदि सर्व वृत्तान्त ज्यों का त्यों, सच्चा और असंदिग्ध कह सुनाया । तब जिनपालित यावत् शोकरहित होकर यावत् विपुल कामभोग भोगता हुआ रहने लगा । [१४०] उश काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर, जहां चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहां पधारे । भगवान् को वन्दना करने के लिए परिषद् निकली। कूणिक राजा भी निकला । जिनपालित ने धर्मोपदेश श्रवण करके दीक्षा अंगीकार की । क्रमशः ग्यारह अंगों का ज्ञाता होकर, अन्त में एक मास का अनशन करके यावत् सौधर्म कल्प में देव के रूप में उत्पन्न हुआ । वहाँ दो सागरोपम की उसकी स्थिति कही गई है । वहाँ से च्यवन करके यावत् महा-विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि प्राप्त करेगा । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! आचार्य - उपाध्यान के समीप दीक्षित होकर जो साधु या साध्वी मनुष्यसंबन्धी कामभोगों की पुनः अभिलाषा नहीं करता, वह जिनपालित की भाँति यावत् संसारसमुद्र को पार करेगा । इस प्रकार हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने नौवें ज्ञातअध्ययन का यह अर्थ प्ररूपण किया है । जैसा मैंने सुना है, उसी प्रकार तुमसे कहता हूँ । अध्ययन- ९ -का- मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
अध्ययन - १० ' चन्द्र'
[१४१] भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने नौवें ज्ञात - अध्ययन का यह अर्थ कहा हैं तो दसवें ज्ञात-अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा हैं ?' 'हे जम्बू ! उस काल और समय में राजगृह नामक नगर था । उस राजगृह नगर में श्रेणिक नामक राजा था उस के बाहर ईशानकोण में गुणशील नामक चैत्य था । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वानी अनुक्रम से विचरते, एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते सुखे सुखे विहार करते हुए, गुणशील चैत्य, पधारे । भगवान् की वन्दना - उपासना करने के लिए परिषद् निकली । श्रेणिक राजा भी निकला । धर्मोपदेश सुन कर परिषद् लौट गई । तत्पश्चात् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार कहा 'भगवन् ! जीव किस प्रकार वृद्धि को प्राप्त होते हैं और किस प्रकार हामि को प्राप्त करते है ?"
'हे गौतम ! जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द, पूर्णिमा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से हीन होता है, सौम्यता से, स्निग्धता से, कान्ति से, दीप्ति से, युक्ति से, छाया से, प्रभा से, ओजस् से, लेश्या से और मण्डल से हीन होता है । इसी प्रकार कृष्णपक्ष की द्वितीया का