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________________ १५६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद के साथ जल में डूब गये । [११२] परन्तु दोनों माकन्दीपुत्र चतुर, दक्ष, अर्थ को प्राप्त, कुशल, बुद्धिमान, निपुण, शिल्प को प्राप्त, बहुत-से पोतवहन के युद्ध जैसे खरतनाक कार्यों में कृतार्थ, विजयी, मूढ़तारहित और फूर्तीले थे । अतएव उन्होंने एक बड़ा-सा पटिया का टुकड़ा पा लिया । जिस प्रदेश में वह पोतवहन नष्ट हुआ था, उसी प्रदेश में-उसके पास ही, एक रत्नद्वीप नामक बड़ा द्वीप था । वह अनेक योजन लम्बा-चौड़ा और अनेक योजन के घेरे वाला था । उसके प्रदेश अनेक प्रकार के वृक्षों के वनों से मंडित थे । वह द्वीप सुन्दर सुषमा वाला, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला, दर्शनीय, मनोहर और प्रतिरूप था अर्थात् दर्शकों को नए-नए रूप में दिखाई देता था । उसी द्वीप के एकदम मध्यभाग में एक उत्तम प्रासाद था । उसकी ऊँचाई प्रकट थी, वह बहुत ऊँचा था । वह भी सश्रीक, प्रसन्नताप्रदायी, दर्शनीय, मनोहर रूप वाला और प्रतिरूप था । उस उत्तम प्रासाद में रत्नद्वीपदेवता नाम की एक देवी रहती थी । वह पापिनी, चंडा-अति पापिनी, भयंकर, तुच्छ स्वभाव लाली और साहसिक थी । उस उत्तम प्रासाद की चारों दिशाओं में चार वनखंड थे । वे श्याम वर्ण वाले और श्याम कान्ति वाले थे । तत्पश्चात् वे दोनों माकन्दीपुत्र पटिया के सहारे तिरते-तिरते रत्नद्वीप के समीप आ पहुँचे । उन माकन्दीपुत्रों को छाह मिली । उन्हों घड़ी भर विश्राम किया । पटिया के टुकड़े को छोड़ दिया । रत्नद्वीप में उतरे । उतरकर फलों की मार्गणा की। ग्रहण करके फल खाये। फिर उनके तेल से दोनों ने आपस में मालिस की | वावड़ी में प्रवेश किया । स्नान किया। बाहर निकले । एक पृथ्वीशिला रूपी पाट पर बैठकर शान्त हुए, विश्राम लिया और श्रेष्ठ सुखासन पर आसन हुए । वहाँ बैठे-बैठे चम्पानगरी, माता-पिता से आज्ञा लेना, लवण-समुद्र में उतरना, तूफानी वायु का उत्पन्न होना, नौका का भग्न होकर डूब जाना, पटिया का टुकड़ा मिल जाना और अन्त में रत्नद्वीप में आना, इन सब बातों बार-बार विचार करते हुए भनमनः संकल्प होकर हथेली पर मुख रखकर आर्तध्यान में- चिन्ता में डूब गये । [११३] तत्पश्चात् उस रत्नद्वीप की देवी ने उस माकन्दीपुत्रों को अवधिज्ञान से देखा। उसने हाथ में ढाल और तलवार ली । सात-आठ ताड़ जितनी ऊँचाई पर आकाश में उड़ी। उत्कृष्ट यावत् देवगति से चलती-चलती जहाँ माकन्दीपुत्र थे, वहाँ आई । आकर एकदम कुपित हुई और माकन्दीपुत्रों को तीखे, कठोर और निष्ठुर वचनों से कहने लगी- 'अरे माकन्दी के पुत्रो ! अप्रार्थित की इच्छा करने वालो ! यदि तुम मेरे साथ विपुल कामभोग भोगते हुए रहोगे तो तुम्हारा जीवन है, और यदि तुम नहीं रहोगे तो इस नील कमल, भैंस के सींग, नील द्रव्य की गुटिका और अलसी के फूल के समान काली और छुरे की धार के समान तीखी तलवार से तुम्हारे इन मस्तकों को चाड़फल की तरह काट कर एकान्त में डाल दूंगी, जो गंडस्थलों को और दाढ़ी-मूंछों को लाल करनेवाले हैं और मूंछों से सुशोभित हैं, अथवा जो माता-पिता आदि के द्वारा सँवार कर सुशोभित किए हुए केशों से शोभायमान है ।' तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र रत्नद्वीप की देवी से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके भयभीत हो उठे । उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिये ! जो कहेंगी, हम आपकी आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में तत्पर रहेंगे । तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दी के पुत्रों को ग्रहण किया-साथ लिया । लेकर जहाँ अपना उत्तम प्रासाद था,
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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