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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/९/१११
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[१११] तत्पश्चात् उन माकन्दीपुत्रों के अनेक सैकड़ों योजन तक अवगाहन कर जाने पर सैंकड़ों उत्पात उत्पन्न हुए । वे उत्पात इस प्रकार थे-अकाल में गर्जना बिजली चमकना स्तनित शब्द होने लगे । प्रतिकूल तेज हवा चलने लगी । तत्पश्चात् वह नौका प्रतिकूल तूफानी वायु से बार-बार काँपने लगी, बार-बार एक जगह से दूसरी जगह चलायमान होने लगी, बार-बार संक्षुब्ध होने लगी-नीचे डूबने लगी, जल के तीक्ष्ण वेग से बार-बार टकराने लगी, हाथ से भूतल पर पछाड़ी हुई गेंद के समान जगह-जगह नीची-ऊँची होने लगी । विद्याधर-कन्या जैसे पृथ्वीतल के ऊपर उछलती हैं, उसी प्रकार उछलने लगी और विद्याभ्रष्ट विद्याधरकन्या जैसे आकाशतल से नीचे गिरती है, उसी प्रकार वह नौका भी नीचे गिरने लगी। जैसे महान् गरुड़ के वेग से त्रास पाई नाग की उत्तम कन्या भय की मारी भागती है, उसी प्रकार वह भी इधर-उधर दौड़ने लगी । जैसे अपने स्थान से बिछड़ी हुई बछेरी बहुत लोगों के कोलाहल से त्रस्त होकर इधर-उधर भागती है, उसी प्रकार वह भी इधर-उधर दौड़ने लगी । माता-पिता के द्वारा जिसका अपराध जान लिया गया है, ऐसी सज्जन पुरुष के कुल की कन्या के समान नीचे नमने लगी । तरंगों के सैकड़ों प्रहारों से ताड़ित होकर वह थरथराने लगी । जैसे बिना आलंबन की वस्ती आकाश से नीचे गिरती है, उसी प्रकार वह नौका भी नीचे गिरने लगी । जिसका पति मर गया हो ऐसी नव-विवाहिता वधू जैसे आँसू बहाती है, उसी प्रकार पानी से भीगी ग्रंथियों में से झरनेवाली जलधारा के कारण वह नौका भी अश्रुपात-सा करती प्रतीत होने लगी ।
परचक्री राजा के द्वारा अवरुद्ध हई और इस कारण घोर महाभय से पीड़ित किसी उत्तम महानगरी के समान वह नौका विलाप करती हुई-सी प्रतीत होने लगी । कपट से किये प्रयोग से युक्त, योग साधने वाली पब्रिाजिका जैसे ध्यान करती हैं, उसी प्रकार वह भी कभी-कभी स्थिर हो जाने के कारण ध्यान करती-सी जान पड़ती थी । किसी बड़े जंगल में से चलकर निकली हुई और थकी हुई बड़ी उम्रवाली माता जैसे हांफती है, उसी प्रकार वह नौका भी निःश्वास-सा छोड़ने लगी, तपश्चरण के फलस्वरूप प्राप्त स्वर्ग के भोग क्षीण होने पर जैसे श्रेष्ठ देवी अपने च्यवन के समय शोक करती है, उसी प्रकार वह नौका भी शोक-सा करने लगी, उसके काष्ठ और मुखभाग चूर-चूर हो गये । मेढ़ी भंग भंग हो गई और माल सहसा मुड़ गई। वह नौका पर्वत के शिखर पर चढ़ जाने के कारण ऐसी मालूम होने लगी मानो शूली पर चढ़ गई हो । उसे जल का स्पर्श वक्र होने लगा । एक दूसरे के साथ जुड़े पटियों में तड़-तड़ शब्द होने लगा, लोहे की कीलें निकल गई । उसके पटियों के साथ बँधी रस्सियाँ गीली होकर टूट गई वह कच्चे सिकोरे जैसी हो गई । अभागे मनुष्य के मनोरथ के समान वह अत्यन्त चिन्तनीय हो गई । नौका पर आरूढ़ कर्णधार, मल्लाह, वणिक और कर्मचारी हाय-हाय करके विलाप करने लगे । वह नाना प्रकार के रत्नों और मालों से भरी हुई थी । इस विपदा के समय सैकड़ों मनुष्य रुदन करने लगे अश्रुपात, आक्रन्दन, और शोक करने लगे, विलाप करने लगे, उसी समय जल के भीतर विद्यमान एक बड़े पर्वत के शिखर के साथ टकरा कर नौका का मस्तूल और तोरण भग्न हो गया और ध्वजदंड मुड़ गया । नौका के वलय जैसे सैकड़ों टुकड़े हो गये । वह नौका ‘कड़ाक' का शब्द करके उसी जगह नष्ट हो गई, अर्थात् डूब गई । तत्पश्चात् उस नौका के भग्न होकर डूब जाने पर बहुत-से लोग बहुत-से रत्नों, भांडों और माल