________________
ज्ञाताधर्मकथा-१/-/८/९२
१४५
आई और बहुत से राजाओं एवं ईश्वरों - राजकुमारों - ऐश्वर्यशाली जनों आदि के सामने यावत् अपने धर्म की - दानधर्म, शौचधर्म, तीर्थाभिषेक आदि की प्ररूपणा करने लगी ।
तत्पश्चात् जितशत्रु राजा एक बार किसी समय अपने अन्तःपुर और परिवार से परिवृत होकर सिंहासन पर बैठा था । परिव्राजिकाओं से परिवृता वह चोक्खा जहाँ जितशत्रु राजा का भवन था और जहाँ जितशत्रु राजा था, वहाँ आई । आकर भीतर प्रवेश किया । जय-विजय
शब्दों से जितशत्रु का अभिनन्दन किया । उस समय जितशत्रु राजा ने चोक्खा परिव्राजिका को आते देखकर सिंहासन से उठा । चोक्खा परिव्राजिका का सत्कार किया । सम्मान किया । आसन के लिए निमंत्रण किया । तत्पश्चात् वह चोक्खा परिव्राजिका जल छिड़ककर यावत् sir पर बिछाए अपने आसन पर बैठी । फिर उसने जितशत्रु राजा, यावत् अन्तःपुर के कुशल- समाचार पूछे । उसके बाद चोक्खा ने जितशत्रु राजा को दानधर्म आदि का उपदेश दिया । तत्पश्चात् वह जितशत्रु राजा अपने रानियों के सौन्दर्य आदि में विस्मययुक्त था, अतः उसने चोक्खा परिव्राजिका से पूछा- 'हे देवानुप्रिय ! तुम बहुत-से गांवों, आकरों आदि में यावत् पर्यटन करती हो और बहुत-से राजाओं एवं ईश्वरों के घरों में प्रवेश करती हो तो कहीं किसी भी राजा आदि का ऐसा अन्तःपुर तुमने कभी पहले देखा है, जैसा मेरा यह अन्तःपुर है ?" तब चोक्खा परिव्राजिका जितशत्रु राजा के उस प्रकार कहने पर थोड़ी मुस्करा कर बोली - 'देवानुप्रिय ! तुम उस कूप मंडूक के समान जान पड़ते हो ।' जितशत्रु ने पूछा'देवानुप्रिय ! कौन - सा वह कूपमंडुक ?' चोक्खा बोली- 'जितशत्रु ! एक कुएँ का मेंढक था । वह मेंढक उसी कूप में उत्पन्न हुआ था, उसी में बढ़ा था । उसने दूसरा कूप, तालाब, हद, सर अथवा समुद्र देखा नहीं था । अतएव वह मानता था कि यही कूप हैं और यही सागर है, किसी समय उस कूप में एक समुद्री मेंढक अचानक आ गया । तब कूप के मेंढक ने कहा- 'देवानुप्रिय ! तुम कौन हो ? कहाँ से अचानक यहाँ आये हो ?' तब समुद्र के मेंढक ने कूप के मेंढक से कहा- 'देवानुप्रिय ! मैं समुद्र का मेंढक हूँ । तब कूपमंडूक ने समुद्रमंडूक से करा - 'देवानुप्रिय ! वह समुद्र कितना बड़ा हैं ?' तब समुद्रीमंडूक ने कूपमंडूक से कहा'देवानुप्रिय ! समुद्र बहुत बड़ा हैं ।' तब कूपमंडूक ने अपने पैर से एक लकीर खींची और कहा- देवानुप्रिय ! क्या इतना बड़ा हैं ? समुद्रीमंडूक ने कहा इस से भी बडा है, कूपमण्डक पूर्व दिशा के किनारे से उछल कर दूर गया और फिर बोला - देवानुप्रिय ! वह समुद्र क्या इतना बड़ा है ?' समुद्री मेंढक ने कहा- 'यह अर्थ समर्थ नहीं । इसी प्रकार उत्तर देता गया ।
'इसी प्रकार हे जितशत्रु ! दूसरे बहुत से राजाओं एवं ईश्वरों यावत् सार्थवाह आदि की पत्नी, भगिनी, पुत्री अथवा पुत्रवधू तुमने देखी नहीं । इसी कारण समझते हो कि जैसा मेरा अन्तःपुर है, वैसा दूसरे का नहीं है । हे, जितशत्रु ! मिथिला नगरी में कुंभ राजा की पुत्री और प्रभावती की आत्मजा मल्लीकुमारी रूप और यौवन में तथा लावण्य में जैसी उत्कृष्ट एवं उत्कृष्ट शरीर वाली है, वैसी दूसरी कोई देवकन्या भी नहीं हैं । विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या के काटे हुए पैर के अंगुल के लाखवें अंश के बराबर भी तुम्हारा यह अन्तःपुर नहीं है ।' इस प्रकार कह कर वह पखाजिका जिस दिशा से प्रकट हुई थी उसी दिशा में लौट गई । परिव्राजिका के द्वारा उत्पन्न किये गये हर्ष वाले राजा जितशत्रु ने दूत को बुलाया । पहले के समान ही सब कहा यावत् वह दूत मिथिला जाने के लिये रवाना हो गया । 510