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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/५/६७ ११७ तत्पश्चात् सुदर्शन को प्रतिबोध प्राप्त हुआ | उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया । इस प्रकार कहा-'भगवन् ! मैं धर्म सुनकर उसे जानना चाहता हूँ ।' यावत् वह धर्मोपदेश श्रवण करके श्रमणोपासक हो गया, जीवाजीव का ज्ञाता हो गया, यावत् निर्ग्रन्थ श्रमणों को आहार आदि का दान करता हुआ विचरने लगा । तत्पश्चात् शुक पब्रिाजक को इस कथा का अर्थ जान कर इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ-'सुदर्शन ने शौच-धर्म का परित्याग करके विनयमूल धर्म अंगीकार किया है । अतएव सुदर्शन की दृष्टि का वमन कराना और पुनः शोधमूलक धर्म का उपदेश करना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा ।' उसने ऐसा विचार किया । विचार करके एक हजार पख्रिाजकों के साथ जहाँ सौगंधिका नगरी थी और जहाँ पखिाजकों का मठ था, वहाँ आया । आकर उसने पब्रिाजकों के मठ में उपकरण रखे । तदनन्तर गेरु से रंगे वस्त्र धारण किये हुए वह थोड़े पब्रिाजको के साथ, उनसे घिरा हुआ पखिाजक-मठ से निकला | निकल कर सौगंधिका नगरी के मध्यभाग में होकर जहाँ सुदर्शन का घर था और जहाँ सुदर्शन था वहाँ आया । तब सुदर्शन ने शुक पख्रिाजक को आता देखा । देखकर वह खड़ा नहीं हुआ, सामने नहीं गया, उसका आदर नहीं किया, उसे जाना नहीं, वन्दना नहीं की, किन्तु मौन रहा । तब शुक पख्रिाजक ने सुदर्शन को न खड़ा हुआ देखकर इस प्रकार कहा-हे सुदर्शन ! पहले तुम मुझे आता देखकर खड़े होते थे, सामने आते और आदर करते थे, वन्दना करते थे, परन्ते हे सुदर्शन ! अब तुम मुझे आता देखकर न वन्दना की तो हे सुदर्शन ! किसके समीप तुमने विनयमूल धर्म अंगीकार किया है ? तत्पश्चात् शुक पखिाजक के इस प्रकार कहने पर सुदर्शन आसन से उठ कर खड़ा हुआ । उसने दोनों हाथ जोड़े मस्तक पर अंजलि की और शुक पब्रिाजक से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! अरिहंत अरिष्टनेमि के अन्तेवासी थावच्चापुत्र नामक अनगार विचरते हुए यावत् यहाँ आये हैं और यहीं नीलाशोक नामक उद्यान में विचर रहे हैं। उनके पास से मैंने विनयमूल धर्म अंगीकार किया है । [६८] तत्पश्चात् शुक पब्रिाजक ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा-'हे सुदर्शन ! चलें, हम तुम्हारे धर्माचार्य थावच्चापुत्र के समीप प्रकट हों- चलें और इन अर्थों को, हेतुओ को, प्रश्नों को, कारणों को तथा व्याकरणों को पूछे ।' अगर वह मेरे इन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों का उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वन्दना करूंगा, नमस्कार करूंगा और यदि वह मेरे इन अर्थों यावत् व्याकरणों को नहीं कहेंगे-मैं उन्हें इन्हीं अर्थों तथा हेतुओं आदि से निरुत्तर कर दूंगा । तत्पश्चात् वह शुक पख्रिाजक, एक हजार पब्रिाजकों के और सुदर्शन सेठ के साथ जहाँ नीलाशोक उद्यान था, और जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे, वहाँ आया । आकर थावच्चापुत्र से कहने लगा-'भगवन् ! तुम्हारी यात्रा चल रही है ? यापनीय है ? तुम्हारे अव्याबाध है ? और तुम्हारा प्रासुक विहार हो रहा है ? तब थावच्चापुत्र ने शुक पब्रिाजक के इस प्रकार कहने पर शुक से कहा-हे शुक ! मेरी यात्रा भी हो रही है, यापनीय भी वर्त रहा हैं, अव्याबाध भी हैं और प्रासुक विहार भी हो रहा है । तत्पश्चात् शुक ने थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा-'भगवन् ! आपकी यात्रा क्या है ? (थावच्चापुत्र) हे शुक ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम आदि योगों से जीवों की यतना करना हमारी यात्रा है । शुक-भगवन् ! यापनीय क्या हैं ? थावच्चापुत्र-शुक ! दो प्रकार का
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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