SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/५/६५ ११५ 'देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसे सुख उपजे वैसा करो ।' भगवान् की अनुमति प्राप्त करके थावच्चापुत्र एक हजार अनगारों के साथ बाहर जनपदों में विचरण करने लगे । [६६] उस काल और उस समय में शैलकपुर नगर था । उसके बाहर सुभूमिभाग उद्यान था । शैलक राजा था । पद्मावती रानी थी । मंडुक कुमार था । वह युवराज था । उस शैलक राजा के पंथक आदि पाँच सौ मंत्री थे । वे औत्पत्तिकी वैनयिकी पारिणामिकी और कार्मिकी इस प्रकार चारों तरह की बुद्धियों से सम्पन्न थे और राज्य की धुरा के चिन्तक भी थे-शासन का संचालन करते थे । थावच्चापुत्र अनगार एक हजार मुनियों के साथ जहां शैलकपुर था और जहाँ सुभूमिभाग नामक उद्यान था, वहाँ पधारे । शैलक राजा भी उन्हें वन्दना करने के लिए निकला । थावच्चापुत्र ने धर्म का उपदेश दिया । धर्म सुनकर शैलक राजा ने कहा-जैसे देवानुप्रिय के समीपे बहुत-से उग्रकुल के, भोजकुल के तथा अन्य कुलों के पुरुषों ने हिरण्य सुवर्ण आदि का त्याग करके दीक्षा अंगीकार की है, उस प्रकार मैं दीक्षित होने में समर्थ नहीं हूँ । अतएव मैं देवानुप्रिय से पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को धारण करके श्रावक बनना चाहता हूँ ।' इस प्रकार राजा श्रमणोपासक यावत् जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता हो गया यावत् तप तथा संयम से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा । इसी प्रकार पंथक आदि पांच सौ मंत्री भी श्रमणोपासक हो गये । थावच्चापुत्र अनगार वहाँ से विहार करके जनपदों में विचरण करने लगे । [६७] उस काल और उस समय में सौगंधिका नामक नगरी थी । (वर्णन) उस नगरी के बाहर नीलाशोक नामक उद्यान था । (वर्णन) उस सौगंधिका नगरी में सुदर्शन नामक नगरश्रेष्ठी निवास करता था । वह समृद्धिशाली था,यावत् वह किसी से पराभूत नहीं हो सकता था । उस काल और उस समय में शुक नामक एक पब्रिाजक था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा षष्टितन्त्र में कुशल था । सांख्यमत के शास्त्रों के अर्थ में कुशल था। पाँच यमों और पांच नियमों से युक्त दस प्रकार के शौचमूलक पब्रिाजक-दर्म का, दानधर्म का, शौचधर्म का और तीर्थस्नान का उपदेश और प्ररूपण करता था । गेरू से रंगे हुए श्रेष्ठ वस्त्र धारण करता था । त्रिदंड, कुण्डिका-कमंडलु, मयूरपिच्छ का छत्र, छत्रालिक, अंकुश पवित्री और केसरी यह सात उपकरण उसके हाथ में रहते थे । एक हजार पख्रिाजकों से परिवृत वह शुक पब्रिाजक जहाँ सौगंधिका नगरी थी और जहाँ पख्रिाजकों का आवसथ था, वहाँ आया। आकर पब्रिाजकों के उस मठ में उसने अपने उपकरण रखे और सांख्यमत के अनुसार अपनी आत्मा को भांवित करता हुआ विचरने लगा । तब उस सौगंधिक नगरी के श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर चतुर्मुख, महापथ, पथों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर परस्पर ऐसा कहने लगे-'निश्चय ही शुक पख्रिाजक यहाँ आये हैं यावत् आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं ।' तात्पर्य यह कि शुक पख्रिाजक के आगमन की गली-गली और चौराहों में चर्चा होने लगी । उपदेश-श्रवण के लिए परिषद् निकली । सुदर्शन भी निकला । तत्पश्चात् शुक पख्रिाजक ने उस परिषद् को, सुदर्शन को तथा अन्य बहुत-से श्रोताओं को साँख्यमत का उपदेश दिया । यथा-हे सुदर्शन ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है । यह शौच दो प्रकार का है-द्रव्यशौच और भावशौच । द्रव्यशौच जल से और मिट्टी से होता है । भावशौच दर्भ से और मंत्र से होता है । हे देवानुप्रिय ! हमारे
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy