SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद तो मैं आपकी भुजाओं की छाया के नीचे रह कर मनुष्य संबन्धी विपुल कामभोग भोगता हुआ विचरूँ ।' थावच्चापुत्र के द्वारा इस प्रकार कहने पर कृष्ण वासुदेव ने थावच्चापुत्र से कहा- 'हे देवानुप्रिय ! मरण और जरा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । अतीव बलशाली देव अथवा दानव के द्वारा भी इनका निवारण नहीं किया जा सकता । हाँ, अपने द्वारा उपार्जित पूर्व कर्मों का क्षय ही इन्हें रोक सकता हैं ।' 'तो हे देवानुप्रिय ! मैं अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय द्वारा संचित, अपने आत्मा के कर्मों का क्षय करना चाहता हूँ ।' थावच्चापुत्र के द्वारा इस प्रकार कहने पर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा- 'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और द्वारिका नगरी के श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर आदि स्थानों में, यावत् श्रेष्ठ हाथी के स्कंध पर आरूढ़ होकर ऊँची-ऊँची ध्वनि से, ऐसा उद्घोषणा करो-'हे देवानुप्रियो ! संसार के भय से उद्विग्न और जन्म-मरण से भयभीत थावच्चापुत्र अर्हन्त अरिष्टनेमि के निकट मुंडित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहता हैं तो हे देवानुप्रिय ! जो राजा, युवराज, रानी, कुमार, ईश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माडंबिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति अथवा सार्थवाह दीक्षित होते हुए थावच्चापुत्र के साथ दीक्षा ग्रहण करेगा, उसे कृष्ण वासुदेव अनुज्ञा देते हैं और पीछे रहे उनके मित्र, ज्ञाति, निजक, संबन्धी या परिवार में कोई भी दुःखी होगा तो उसके योग और निर्वाह करेंगे कौटुम्बिक पुरुषों ने यह की घोषणा कर दी । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र पर अनुराग होने के कारण एक हजार पुरुष निष्क्रमण के लिए तैयार हुए । वे स्नान करके सब अलंकारों से विभूषित होकर, प्रत्येक-प्रत्येक अलग-अलग हजार पुरुषों द्वारा वहन की जानेवाली पालकियों पर सवार होकर, मित्रों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर थावच्चापुत्र के समीप प्रकट हुए-आये । तब कृष्ण वासुदेव ने एक हजार पुरुषों को आया देखा । देखकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-(मेघकुमार के दीक्षाभिषेक के वर्णन समान कहना) । चाँदी और सोने के कलशों से उसे स्नान कराया यावत सर्व अलंकारों से विभूषित किया । थावच्चापुत्र उन हजार पुरुषों के साथ, शिविका पर आरूढ़ होकर, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ, द्वारका नगरी के बीचों-बीच होकर निकला । जहाँ गिरनार पर्वत, नन्दनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन एवं अशोक वृक्ष था, उधर गया। वहाँ जाकर अरिहन्त अरिष्टनेमि के छत्र पर छत्र और पताका पर पताका देखता हैं और विद्याधरों एवं चारण मुनियों को और मुंभक देवों को नीचे उतरते-चढ़ते देखता है, वहीं शिविका से नीचे उतर जाता है । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने हजार पुरुषों के साथ स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया, यावत् प्रव्रज्या अंगीकार की । थावच्चापुत्र अनगार हो गया । ईर्यासमिति से युक्त, भाषासमिति से युक्त होकर यावत् साधुता के समस्त गुणों से उत्पन्न होकर विचरने लगा । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अरिहन्त अरिष्टनेमि के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक से आरम्भ करके चौदह पूर्वो का अध्ययन करके, बहुत से अष्टमभक्त, षष्टभक्त यावत् चतुर्थभक्त आदि करते हुए विचरने लगे । अरिहन्त अरिष्टनेमि ने थावच्चापुत्र अनगार को उनके साथ दीक्षित होनेवाले इभ्य आदि एक हजार अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किये । तत्पश्चात् थावच्चापुत्र ने एक बार किसी समय अरिहन्त अरिष्टनेमि की वंदना की और नमस्कार किया । वन्दना और नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं हजार साधुओं के साथ जनपदों में विहार करना चाहता हूँ । भगवान् ने उत्तर दिया
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy