SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद दायजा दिया । वह इभ्यकुल की बत्तीस कुमारिकाओं के साथ विपुल शब्द, स्पर्श, रस, रूप, वर्ण और गंध का भोग-उपभोग करता हुआ रहने लगा । उस काल और उस समय में अरिहन्त अरिष्टनेमि पधारे । धर्म की आदि करनेवाले, तीर्थ की स्थापना करनेवाले, आदि वर्णन भगवान् महावीर के समान ही समझना । विशेषता यह है कि भगवान् अरिष्टनेमि दस धनुष ऊँचे थे, नीलकमल, भैंस के सींग, नील गुलिका और अलसी के फूल के समान श्याम कान्ति वाले थे । अठारह हजार साधुओं से और चालीस हजार साध्विओं से परिवृत थे । वे भगवान् अरिष्टनेमि अनुक्रम से विहार करते हुए सुखपूर्वक ग्रामानुग्राम पधारते हुए जहाँ द्वारका नगरी थी, जहाँ गिरनार पर्वत था, जहाँ नन्दनवन नामक उद्यान था, जहाँ सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायनत था और जहाँ अशोक वृक्ष था, वहीं पधारे। संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । नगरी से परिषद् निकली । भगवान् ने उसे धर्मोपदेश दिया । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने यह कथा सुनकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा - शीघ्र ही सुधर्मा सभा में जाकर मेघों के समूह जैसी ध्वनि वाली एवं गम्भीर तथा मधुर शब्द करने वाली कौमुदी भेरी बजाओ ।' तब वे कौटुम्बिक पुरुष, कृष्ण वासुदेव द्वारा इस प्रकार आज्ञा देने पर हृष्ट-तुष्ट हुए, आनंदित हुए । यावत् मस्तक पर अंजलि करके आज्ञा अंगीकार की । अंगीकार करके कृष्ण वासुदेव के पास से चले । जहाँ धर्मा सभा थी और जहाँ कौमुदी नामक भेरी थी, वहाँ आकर मेघ-समूह के समान ध्वनि वाली तथा गंभीर एवं मधुर करने वाले भेरी बजाई । उस समय भेरी बजाने पर स्निग्ध, मधुर और गंभीर प्रतिध्वनि करता हुआ, शरदऋतु के मेध जैसा भेरी का शब्द हुआ । उस कौमुदी भेरी का ताड़न करने पर नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारका नगरी के श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, कंदरा, गुफा, विवर, कुहर, गिरिशिखर, नगर के गोपुर, प्रासाद, द्वार, भवन, देवकुल आदि समस्त स्थानों में, लाखों प्रतिध्वनियों से युक्त होकर, भीतर और बाहर के भागों सहित सम्पूर्ण द्वारका नगरी को शब्दायमान करता हुआ वह शब्द चारों ओर फैल गया । तत्पश्चात् नौ योजन चौड़ी और बाहर योजन लम्बी द्वारका नगरी में समुद्रविजय आदि दस दशार अनेक हजार गणिकाएँ उस कौमुदी भेरी का शब्द सुनकर एवं हृदय में धारण करके हृष्टतुष्ट, प्रसन्न हुए । यावत् सबने स्नान किया । लम्बी लटकने वाली फूल-मालाओं के समूह को धारण किया । कोरे नवीन वस्त्रों को धारण किया । शरीर पर चन्दन का लेप किया । कोई अश्व पर आरूढ हुए, इसी प्रकार कोई गज पर आरूढ़ हुए, कोई रथ पर कोई पालकी में और कोई म्याने में बैठे । कोई-कोई पैदल ही पुरुषों के समूह के साथ चले और कृष्ण वासुदेव के पास प्रकट हुए-आए । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने समुद्रविजय वगैरह दस दसारों को तथा पूर्ववर्णित अन्य सबको यावत् अपने निकट प्रकट हुआ देखा । देखकर वह हृष्ट-तुष्ट हुए, यावत् उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । बुलाकर इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही चतुरंगिणी सेना सजाओ और विजय नामक गंधहस्ती को उपस्थित करो ।' कौटुम्बिक पुरुषों ने 'बहुत 'अच्छा' कह कर सेना सजवाई और विजय नामक गंधहस्ती को उपस्थित किया । तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने स्नान किया । वे सब अलंकारों से विभूषित हुए । विजय गंधहस्ती पर सवार हु । कोरंट वृक्ष के फूलों की माला वाले छत्र को धारण किये और भटों के बहुत बड़े समूह ११२
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy